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एक अद्भुत चैत्यालय बनाया था। उसमें बहुमूल्य रत्न से बनाई हुई भगवान् पार्श्वनाथ की मनोहर मूर्ति थी, उसके ऊपर रत्नजड़ित तीन छत्र थे, उनमें एक नीलम रत्न बहुत ही कीमती था, जो अन्धेरे में भी जगमगाता था।
उस समय सौराष्ट्र के पाटलीपुत्र नगर का राजकुमार सुवीर कुसंगति में दुराचारी तथा चोर हो गया था। वह एक बार सेठ के जिनमन्दिर में गया। वहाँ उसका मन ललचाया भगवान् की भक्ति के कारण नहीं, बल्कि कीमती नीलम रत्न की चोरी करने के भाव से। उसने चोरों की सभा में घोषणा की- “जो कोई उस जिनभक्त सेठ के महल से कीमती नीलम रत्न लेकर आयेगा, उसे बड़ा इनाम मिलेगा।" सूर्य नामक एक चोर उसके लिए तैयार हो गया। उसने कहा “अरे, इन्द्र के मुकुट में लगा हुआ रत्न भी मैं क्षण भर में लाकर दे सकता हूँ, तो यह कौन-सी बड़ी बात
लेकिन, महल से उस रत्न की चोरी करना कोई सरल बात नहीं थी। वह चोर किसी भी तरह से वहाँ पहुँच नहीं पाया। इसलिए अन्त में एक त्यागी का कपटी वेश धारण करके वह उस सेठ के यहाँ पहुँचा। उस त्यागी बने चोर में वक्तृत्व की अच्छी कला थी। जिस किसी से वह बात करता, उसे अपनी तरफ आकर्षित कर लेता। उसी तरह व्रत-उपवास इत्यादि को दिखा-दिखा कर लोगों में उसने प्रसिद्धि भी पा ली, अतः उसे धर्मात्मा समझकर जिनभक्त सेठ ने चैत्यालय की देख-रेख का काम उसे सौंप दिया।
सूर्य चोर तो उस नीलम मणि को देखते ही आनन्द विभोर हो गया ............. और विचार करने लगा- "कब मौका मिले और मैं कब इसे लेकर भागूं।"
इन्हीं दिनों सेठ को बाहर गाँव जाना था। इसलिए उस बनावटी
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