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कहा, “ठीक है, इसे कोड़े मारे जायें।" गाँव के लोग बहुत खुश हुये । सब कोड़े मारने तैयार हो रहे थे, तभी यीशू ने कहा- " किन्तु पहला कोड़ा वही मारे जो निष्पाप हो।" सब के हाथ नीचे हो गये । सब चुप । निष्पाप कौन है? बहुत कठिन है। कोई-न-कोई दुर्गुण तो है ही ।
लोग यहाँ प्रश्न करते हैं- "दूसरों में दोष क्यों नहीं देखें, उन्हें प्रचारित क्यों न करें?" इसका निषेध इसलिये किया है कि दोष को प्रचारित करने से उसका दोष दूर हो ही जाये, ऐसा नहीं होता । वरन् ऐसा करने से तीन बातें अवश्य होंगी। पहला कि वह तुम्हारे मार्ग पर आने की अपेक्षा तुमसे और दूर हो सकता है। दूसरा कि जिन दोषों को तुम प्रचारित करते हो, उन दोषों से तुम्हारा मन आच्छादित होने लगता है एवं तीसरा यह कि दूसरों के दोषों के प्रसारण में बीता तुम्हारा मूल्यवान समय वापिस आने वाला नहीं है, जो तुम स्वयं अपने हितार्थ लगा सकते थे। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने लिखा है
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्त-जनाश्रयाम् । वाच्यतां यत् प्रमार्जन्ति तद्वदन्ति उपगूहनम् । ।15 ।। अर्थात् स्वयं को शुद्ध करो। मार्ग तो पवित्र है। मार्ग पर चलनेवाला अपवित्र हो सकता है, मार्ग नहीं । धर्म का मार्ग, मोक्ष का मार्ग अति पवित्र एवं शुद्ध है। परन्तु यदि किसी 'बाल' या किसी 'अशक्त व्यक्ति' द्वारा उसकी निंदा हो तो उस निंदा को ढक लेना उपगूहन है ।
यहाँ 'बाल' का तात्पर्य छोटे नासमझ बच्चे से नहीं है। बाल वह हैजो तप में कच्चा है, जिसकी बुद्धि और अनुभव में प्रौढ़ता नहीं आ पाई है। वह अस्सी साल का वृद्ध भी हो सकता है। अशक्त वह है, जो किन्हीं परिस्थितियों से विवश होकर आचरण में शिथिल हो गया है। ऐसे बाल / अशक्त द्वारा किये गये हीन आचरण को आचार्य कहते हैं कि ढाँक लो। यदि उसका आचरण प्रगट हो गया, तो अन्य लोग उस पथ से दूर
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