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जाओगे। इसलिए न तुम परेशान हो, न दूसरे को परेशान करो, अपितु उपगूहन अंग का पालन करना ही श्रेष्ठ है। अगर उपगूहन अंग की और भी गहराई में प्रवेश करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि किसी की बुराई को देखना ही मत । अपनी दृष्टि को इतना प्रबल विशाल बना लेना कि किसी की कमी नजर न आये, मन में कुविचार उठने ही न पायें । मन को बुराई से बचाना ही असली उपगहन है। मन के सरोवर में बुराई की काई जमने नहीं देना, चित्त की भूमि पर बुराई की झाड़-झंकार उगने ही नहीं देना, मन के सागर में बुराइयों के मगरमच्छ को तैरने ही न-देने का नाम ही उपगूहन अंग है।
किसी की कमियों पर ध्यान देने से मन गन्दा होता है और आत्मा कर्मों से बन्धती है। आत्मविकास करने के लिए मैत्रीभाव बढ़ाने के लिए यह अंग महत्वपूर्ण अंग है। अगर किसी के दोष नजर भी आयें, तो उसकी बुराई मत करना, उसकी परिस्थिति को समझना, क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति गलती नहीं करता है, परिस्थितियाँ गलती करवा देती हैं। इसलिए परिस्थिति को समझकर ही आगे का कार्य करें। परिस्थिति को समझे बिना मात्र कृत्य को देखकर दोषारोपण किया जाता है तो स्वयं को ही कष्टों का सामना करना पड़ता है; क्योंकि ये सभी जानते हैं कि किसी को पत्थर मारना है तो पहले स्वयं को पत्थर लेना होगा, किसी को चाकू मारना है तो सबसे पहले अपने ही हाथों में चाकू लेना होगा। अगर किसी के घर में आग लगानी है तो सबसे पहले स्वयं के हाथ में अग्नि लेनी होगी। इसी प्रकार अगर किसी की निन्दा करनी है तो, सबसे पहले स्वयं के मन को गन्दा करना ही पड़ेगा। मन के गन्दे होने से स्वयं ही कर्मों का आस्रव होगा। अतः दूसरों के दोषों को छिपाने एवं गुणों को देखने पर ही आत्मा का उद्धार होगा। पर गुण देखना अति कठिन है और दोष ढूँढना अति सहज।
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