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आजकल यह दृष्टि हमारी चर्चा में तो होती है, किन्तु चर्या में नहीं होती। यह जब तक चर्या में नहीं आती, तब तक आत्मा के आनंद का अनुभव नहीं होता। यह तीनलोक की सपंदा एक ओर हो और सम्यक्त्व दूसरी ओर, तो अमूढदृष्टि तीनलोक की संपदा को गौण कर सम्यक्त्व को स्वीकार करता है। आँखों को खोकर तीनलोक का वैभव पा भी लिया, तो क्या? जैसे अंधे को साम्राज्य भी दे दिया जावे, तो क्या अर्थ है? उसके लिये तो अर्थहीन ही है, किन्तु आँखवाला, भिक्षापात्र भी उसके हाथ में हो, तो भी साम्राज्य सुख का अधिकारी बन सकता है। इसी तरह सम्यक्त्व जिसके पास नहीं है, वह सब कुछ होने के बाद भी भिखारी के समान है। परन्तु जिसने सम्यक्त्व की दृष्टि उपलब्ध कर ली है, वह अकिंचन होते हुये भी सम्राट होता है।
बड़ी मुश्किल होती है जब अंधों के बीच कोई आँखवाला पहुँच जाता है। मेक्सिको सिटी के पास एक घाटी की एक बस्ती में सब अंधे-ही-अंधे रहते थे। वह अंधों की नगरी थी। एक दिन एक आँखवाला व्यक्ति वहाँ पहुँचा। घाटी के प्राकृतिक सुंदर दृश्यों को देख वह रोमांचित हो गया। इतना सुन्दर स्थान उसने पहले नहीं देखा था। पर यह देखकर कि वहाँ सारे लोग ज्योतिहीन हैं, उसका मन करुणा से भर गया। इतने सुन्दर स्थान में रहते हुए भी ये लोग प्रकृति के इस अप्रतिम सौंदर्य से अपरिचित हैं। इन्हें प्रकृति की शोभा से परिचय कराना चाहिए। उसने वहाँ के सब लोगों को एकत्र किया और बताने लगा- ये सुंदर फूल हैं, ये प्यारी हरियाली है, ये आकाश में इन्द्रधनुषी छटा बिखरी है। नेत्रहीन जिसने कभी कुछ देखा ही नहीं, वे क्या जानें हरियाली, क्या समझें इन्द्रधनुष की छटा। सब एकसाथ कहने लगे कि यह सब क्या बकवास कर रहे हो? हमें दिखाओ कि फूल कैसे सुंदर हैं ?
अंधों को फूलों की सुंदरता कैसे दिखायें? वो बोले-"हमें छूकर
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