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व्यक्ति करता है। वास्तविकता को जानने वाला ऐसा विकल्प नहीं करता है। वह यह जानता है कि मैं चेतन हूँ, यह देह अचेतन है, मैं ज्ञानवान् आत्मा हूँ, शेष सब जड़ हैं। मैं एक ज्ञाता आत्मा हूँ, इसके बाहर और जो कुछ भी है, वह मुझसे पृथक् है। यह जानने और मानने से ही वास्तविक अमूढ़ता प्रगट होती है। यह हम जान तो कई बार लेते हैं। जब-जब हमारे जीवन में ऐसे प्रसंग घटित होते हैं, उस अवसर पर यह अनुभव होता है कि "हाँ, यह शरीर मेरा नहीं है, शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर नश्वर है, एक दिन नष्ट होगा, औरों के भी शरीर नष्ट हुये हैं, ये भी होगा।" किसी को जब श्मशान पहुंचाते हैं, उस समय श्मशान में विचार आता है कि यह शरीर भी एक दिन वहीं जायेगा। यह श्मशान का वैराग्य क्षणिक ही होता है। यह प्रतीति हर क्षण कहाँ हो पाती है कि शरीर तो श्मशान पहुँचाने के लिये ही है ? इसका अंतिम परिणाम तो वहीं घटित होना है। यह काया जिसे जीवनपर्यंत सजाता-सँवारता रहा हूँ, एक दिन जलकर राख में परिणत होकर समाप्त होने वाली है।
यह अनुभूति, ऐसी प्रतीति ज्ञानी को प्रतिक्षण होती है। वह अपनी दृष्टि शरीर के भीतर, अशरीरी पर ले जाता है और विचार करता है कि जब तक यह विदेह आत्मतत्त्व इस देह में है, तभी तक इस शरीर का कुछ मूल्य है। इस विदेह के निकलते ही इस शरीर की उपयोगिता समाप्त हो जायेगी। तब घर-परिवार के लोग भी इस शरीर को रखना नहीं चाहते। जल्दी-से-जल्दी इसके आखिरी पड़ाव श्मशान पहुँचा देते हैं। जब शरीर ही मेरा नहीं है, तो फिर ये घर-द्वार, कुटुम्ब – परिवार, धन-वैभव ये सब मेरे कैसे हो सकते हैं? ये तो स्पष्टतः पराये ही हैं। मेरे अंदर जो हर्ष-विषाद हो रहा है, जो भाँति-भाँति के विचार उत्पन्न हो रहे हैं, ये भी मेरे नहीं हैं। मेरा स्वभाव तो मात्र जानना और देखना है। यह तथ्य जो जान लेते हैं और अपने स्वभाव में स्थिर हो जाते हैं, वे ही वास्तविक अमूढदृष्टि हैं।
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