________________
संसारबन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा है, तो सबसे पहले 'हम कौन हैं? हमारा स्वरूप क्या है?' यह जानने का प्रयास करें।
स्वभाव का बोध न होने के कारण यह संसारी प्राणी पर - पदार्थों को पाने के लिये लालायित हो रहे हैं । अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। जब इसे अपने स्वभाव का बोध होगा, तब यह बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ कर देगा। यह संसारी प्राणी भटकता - भटकता किसी तरह मनुष्ययोनि में आया है। इसे बोध है, किन्तु पर का बोध है। अभी तक इसने जो बोध पाया है, वह सब जड़ का है, बाहरी है। सही अर्थों में इसने अभी तक अपने-पराये का बोध नहीं पाया और जिसे अपने-पराये का बोध नहीं है, उसकी दृष्टि मूढ़ है ।
भगवान् वीतराग होते हैं । भगवान् की राह और भक्त की राह एक होनी चाहिये। यह बात अलग है कि भगवान् पूर्ण वीतराग हो गये हैं और भक्त चल रहा है । वर्णी जी ने लिखा है "सागर दूर, सिमरिया नीरी ।" भले ही आप सागर में खड़े हों, पर यदि आपने अपना मुख सिमरिया की ओर कर लिया और चलना प्रारम्भ कर दिया, तो सागर दूर और सिमरिया को पास समझना चाहिये । गंतव्य दूर हो, कोई बात नहीं, किन्तु लक्ष्य निश्चित होना चाहिए । लक्ष्य निर्धारित होते ही मुक्ति दूर नहीं । लक्ष्य का निर्धारण हो और फिर उसी तरफ कदम बढ़ायें, तो मंजिल पा जाते हैं। I
कुगुरु, कुदेव व कुशास्त्र को माननेवाले अज्ञानी (मूढ़) जीव गृहीत मिथ्यात्व का सेवन कर संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं । सम्यग्दृष्टि सच्चे वीतरागी देव, शास्त्र व गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी को नमस्कार नहीं करते।
दशांगपुर नगर में जन्म से ही बलवान राजा वज्रकर्ण राज्य करता था। एक दिन जब वह जंगल में शिकर खेलने गया, तब वहाँ मुनिराज को देखकर उसका मन कुछ शांत हुआ और उसने उन मुनिराज के समक्ष
5142