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अंतर में जितनी विकृति, अवगुण हैं, उन्हें देखकर दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। दूसरे के अवगुण देखने से तुम्हारा उद्धार नहीं होगा। दूसरे के घर की सफाई करने से अपने घर की गंदगी नहीं मिटती। अतः दृष्टि मर्म पर डालो, चर्म पर नहीं। जब तक चर्म पर दृष्टि है, तब तक मर्म की पहचान नहीं हो सकती।
__ रुक्मणि की दृष्टि चर्म पर थी। मुनिराज का बाहरी रूप देखकर उसने घृणा की, उसका परिणाम कई भवों में भुगतना पड़ा। आज भी रास्ते में ये प्राणी दिखते हैं। उन्हें देखकर विचार करना चाहिये कि इन्होंने कभी खोटे कर्म किये होंगे, जिसके परिणामस्वरूप यह हीन पर्याय मिली है। उन्हें कभी हीन आचरण करने का यह दण्ड मिला है, तो आज जो हीन आचरण करेगा, वह उसके परिणाम से कैसे बच सकेगा? फल तो कर्म के अनुसार ही मिलेगा। सम्यग्दृष्टि अपने परिणामों को संभाल कर रखता है।
जैनधर्म में राग-द्वेष दोनों वर्जित हैं। राग भी वर्जित हैं, द्वेष भी वर्जित है। यदि किसी से मतैक्य नहीं है, सैद्धांतिक मतभेद है, उससे राग नहीं कर सकते, कोई बात नहीं, किन्तु उससे द्वेष भी नहीं रखना चाहिये। किसी से मन नहीं मिलता, मतभेद है, तो उसकी ओर न देखें, लेकिन वह सामने पड़ जाये तो तिरस्कार भी न करें। तिरस्कार कर रहे हैं तो समझना कि धर्म का मर्म नहीं समझ पाये हैं। धर्म में यदि विधर्मी से राग का निषेध है, तो विधर्मी से द्वेष का भी निषेध है। __गाँधी जी कहते थे– “मैं अपने विरोधियों को भी सम्मान की दृष्टि से देखता हूँ, क्योंकि मुझमें विरोधियों की नजर से देखने की क्षमता आ गई है, मुझे अनेकांत के सिद्धांत पर विश्वास हो गया है। उनकी दृष्टि से वो ही सही हैं और मेरी दृष्टि से मैं सही हूँ।"
एक ग्लास “आधा भरा है" कह सकते हैं। वह "आधा खाली है" यह भी कहा जा सकता है। जो स्वयं अंदर से खाली है, वह "आधा खाली है"
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