________________
सद्गति प्राप्त कर सकती है।" महाराजश्री की वाणी सुनकर उसे जाति-स्मरण हो गया और उसने श्रावकधर्म ग्रहण कर सद्गति प्राप्त की।
ऐसे कई आख्यान हैं, जो बारंबार सावधान करते हैं कि घृणा मत करो। वे बताते हैं कि जो मुनियों की मन से निंदा करता है, उसकी मानसिक शक्ति क्षीण हो जाती है। जो वाणी से निंदा करता है, वह गूंगा हो जाता है। काया से निंदा करने वाले का शरीर कुत्सित हो जाता है। मन और वचन से हम जो कर्मबंध कर लेते हैं, उसका हमें भान नहीं हो पाता। ये कर्मबंध कभी-कभी जन्म-जन्मान्तरों तक रुलाते हैं।
जो को वि धम्मसीलो, संजम तवणियम जोय गुणधारी।
तस्य य दोस कहंता, भग्गा भग्गत्तणं दिति।। संयम से, नियम से, योग से, गुणों से युक्त किसी भी धर्मशील/ धर्मात्मा में जो दोष देखता है, वह स्वयं भग्न है, भ्रष्ट है तथा दूसरों को भी भ्रष्ट करता है।
सम्यग्दृष्टि तो मात्र गुणों पर दृष्टि रखता है। वह अर्जुन के समान लक्ष्य-भेद के लिये मात्र आँख पर ही दृष्टि रखता है अर्थात् गुणों पर ही दृष्टि रखता है। जो ग्लानि से युक्त होता है, वह कदापि गुणग्राही नहीं हो सकता है। सम्यग्दृष्टि सीप की नहीं, मोती की, दीप की नहीं, ज्योति की आराधना करता है। वह बाह्य शरीर को देखकर घृणा नहीं अपितु अन्तरंग के गुणों को देखकर उनके गुणों की प्राप्ति की, हर्षातिरेक के साथ उसे पाने की भावना करता है और आत्मस्वभाव की प्राप्ति की साधना में रत रहता है। ___ आचार्यों का कहना है-यदि किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो उसकी निंदा करने का भी अधिकार नहीं है। दूसरों पर दोषारोपण करने से स्वयं का ही जीवन दूषित होता है। ज्ञानीजन इसीलिये कहते हैंअपना लोटा छानो, दूसरे को देखने से क्या? अपने अंतर को टटोलो।
0 4990