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अलावा और कोई भी नहीं हो सकती है। अर्जुन ने पूछा – क्यों? श्रीकृष्ण ने कहा – जहाँ माँ की ममता मर जाती है, वहाँ युद्ध हो सकता है।
द्रव्य, क्षेत्र आदि का हमारे मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। श्रावकों का यह परम कर्तव्य है कि सात तत्त्वों के विपरीत श्रद्धान को छोड़ दें और अपना आचरण श्रावकाचार के अनुरूप बनायें।
आचार्य समझा रहे हैं-यदि सुखी होना चाहते हो तो रत्नत्रय को धारण कर मोक्षमार्ग पर चलो। और यदि पूर्ण रत्नत्रय को धारण नहीं कर सकते हो तो सम्यग्दृष्टि बनकर घर में 'जल से भिन्न कमल' के समान रहो।
यदि कोई लड़की 10-15 बार ससुराल हो आई हो, पर जब अगली बार ससुराल जाती है तो यद्यपि पहले से ही ससुराल पत्र भेज देती है या फोन कर देती है कि अब घर में काफी काम होगा, मुझे लिवा ले जाओ, पर ससुराल जाते समय वह पहले की ही भाँति रोती है। बताओ उसे ससुराल जाने में दुःख होता है क्या? नहीं, वह तो झूठ-मूठ का रोती है। ससुराल जाने वाली बहुत-सी लड़कियाँ हँसी-खुशी से जाती हैं, मगर रोने का ढोंग करती हैं। भीतर से तो यह होता है कि श्रृंगार करना है, यह करना है, वह करना है, कुछ हँसी-खुशी होती है, मगर यह जानती हैं कि रोना चाहिये, सो बाहरी दिखावे में रोती रहती हैं। भला बताओ वह अंदर से तो प्रसन्न है और बाहर से रोती है, तो क्या उसका यह रोना, रोना कहा जायेगा?
इसी तरह दुकान पर मुनीम ग्राहक से बात करता है कि तुम पर मेरा इतना दाम गया, तुम्हारा मेरे पास इतना आया है। इस तरह मेरा भी कह रहा है, परन्तु श्रद्धा यह है कि मेरा कुछ भी नहीं है, है तो सब सेठ का। और भी देखो कि विवाह इत्यादि में पड़ोस की महिलायें गाना गाने के लिये आ जाती हैं, बड़ी खुशी से गाना गाती हैं-मेरा बन्ना सरदार, राम-सीता जैसी जोड़ी आदि। वे मेरा कहती जरूर हैं, मगर यदि दूल्हा की घोड़ी से गिरकर टांग टूट जाये, तो उनको कोई दर्द नहीं होता। और अगर दूल्हा की माँ को इसका पता चल जाये तो वह कितना दुःख करती है? उसके दुःख का ठिकाना नहीं रहता। सो यदि
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