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इत्यादि नाना प्रकार से अपने को अनुभव करता हूँ, तो अपने को अशुद्ध बनाता चला जाता हूँ। अपने को जो अशुद्ध मानेगा, वह अशुद्ध ही बनता चला जायेगा और जो शुद्ध मानेगा, वह शुद्ध ही बनता चला जायेगा। मनुष्य भावना बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता है। एक बार तू ऐसी हिम्मत किसी क्षण कर ले कि चाहे कितनी ही परिस्थितियों में फंसा हुआ हो चाहे कैसा ही अवसर हो, तो भी किसी का उपयोग ज्ञान में न आवे, मुझे कुछ नहीं सोचना है। सब असार है, सब पर चीजें हैं। इस मुझमें कुछ भी नहीं आता है। मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा ज्ञानमात्र ज्योतिर्मय अपने को देख, ऐसी हिम्मत तो बन जाय । भीतर से जो आनन्द आयेगा, वह भगवान् के समान है। अपने आप ऐसा अनुभव करने का उपाय करना चाहिए। यदि मैं इस प्रकार शुद्ध आत्मतत्त्व की उपासना करता हूँ, तो मैं शुद्व बन जाऊँगा और यदि मैं अपने को अशुद्ध ही अनुभव करता हूँ, तो अशुद्ध ही बना रहूँगा।
यदि अपने को अशुद्ध मानकर परपदार्थों में ही मन लगाये रहेंगे, तो झंझटें ही रहेंगी। एक ब्राह्मणी माँ के तीन लड़के थे-बड़ा, मंझला और छोटा। एक बनिया था। बनिया तो बड़ा चतुर होता है, हर बात में पैसों का हिसाब लगाता है। बनिये से सोचा कि एक ब्राम्हण को जिमाना है, सो ब्राह्मणी माँ के लड़कों को जिमाऊँ। मगर छोटा लड़का सबसे कम खाता होगा, उसी को जिमाऊँ तो अच्छा रहेगा। ब्राह्मणी माँ के पास में बनिया गया, बोला कि माँ जी! आज तुम्हारे छोटे लड़के का निमंत्रण है, मैं उसे जिमाऊँगा। माँ ने कहा-बहुत अच्छा है। हमारे तीनों लड़के तिसेरिया हैं। याने तीन सेर खाने वाले हैं, किसी का निमंत्रण करो, वे सब बराबर हैं।
इसी तरह ज्ञान के कामों को छोड़कर बाकी दुनियाँ के पदार्थों में जितने भी काम हैं, वे सब झंझट हैं, एक-बराबर हैं। झंझट रहित तो केवल एक निज स्वरूप की दृष्टि है, और यही धर्म का पालन है, यही करना है। घर में बैठे हुए यह दृष्टि बन जाय, तो अपना बड़ा काम कर रहे हो। यदि यात्रा में यही बात दृष्टि में आ जाय, तो समझो कि धर्म कर रहे हैं। और यदि मन में कषाय
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