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की वस्तुयें हैं, नश्वर हैं, नष्ट हो जानेवाली हैं। इसलिये वृद्धावस्था में प्रायः सभी व्यक्ति दुःखी हो जाते हैं।
ये संसार बहुत परिवर्तनशील है। जो आपको आज देख रहा है, दस साल बाद देखेगा तो पहचान भी नहीं पायेगा।
एक आठ/नौ साल का लड़का था। उसकी माँ एक तस्वीर देख रही थी। उस बालक ने वह तस्वीर पहले कभी नहीं देखी थी। उसने माँ से कहा-तुम क्या देख रही हो? माँ बोली-तस्वीर देख रही हूँ। बालक बोला-माँ! ये कौन हैं? कितने अच्छे, कितने खूबसूरत लग रहे हैं? कितने अच्छे बाल हैं इनके, कितने सुन्दर कपड़े पहने हैं? माँ! आज तक मैंने इतनी सुन्दर तस्वीर नहीं देखी। माँ ने कहा-बेटा! ये तुम्हारे पिताजी हैं। वह बालक बोला-मेरे पिताजी हैं? फिर ये जो पायजामा-कुर्ता पहने रहते हैं, जिनके सिर पर बाल नहीं हैं, गंजे हैं, ये कौन हैं? माँ ने कहा-वह भी तुम्हारे पिता हैं। बालक बोला-क्या मेरे दो पिता हैं? माँ बोली-नहीं, वो ही ये हैं। ये उनकी जवानी की तस्वीर है। जब वे युवा थे, उस समय की ये तस्वीर है, और आज जो तुम देख रहे हो, वह उनकी ढलती उम्र है। वे वृद्धावस्था की ओर जा रहे हैं, इसलिए उनका ये रूप है। स्वयं का बेटा स्वयं को न पहचान पाये, ये संसार का स्वरूप है। स्वयं का बेटा बीस साल पहले की तस्वीर देखकर नहीं पहचान पा रहा है और कह रहा है- ये मेरे पिता नहीं हैं। क्योंकि उसने बीस साल बाद आपकी तस्वीर देखी है, इसलिए बीस साल पहले की तस्वीर को नहीं पहचान रहा है। फिर भी हमारी समझ में कुछ नहीं आता। जब मर जायेंगे, तब फिर कौन पहचानेगा? इसलिए संसार की आसक्ति को छोड़कर धर्म की कीली से लग जाओ, जिससे मोक्ष का सच्चा निराकुल सुख प्राप्त हो सके।
यह संसार महाभयानक है। धर्म ही संसार में सार है। जो आत्मा को नरेन्द्र, सुरेन्द्र और मुनीन्द्र से वन्दनीय मुक्तिस्थान में धरता है, उसे धर्म कहते हैं। अथवा जो संसारी प्राणियों को धरता है यानी उनका उद्धार करता है, वह धर्म है। त्रिलोक में जितने उत्कृष्ट सुख हैं, वे धर्म के ही प्रसाद से प्राप्त होते हैं। धर्म से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। धर्म के बिना इस संसार में कोई किसी भी
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