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में जरूर आना। 10-15 वर्ष बीत गये । नारद आए, बोले-चलो, बेटा! अब चलो। बोला-महाराज! मुश्किल से धन कमाया, लाखों की सम्पत्ति जोड़ी, अगर दुर्भाग्य से पुत्र कुपूत निकल गया और अगर मैं चलूँ, तो सारी सम्पत्ति बरबाद हो जायेगी। तो, महाराज! कृपा करके आप अगले भव में जरूर आना। अब तो वह मर गया और मरकर उस घर की कोठरी में साँप हुआ जिसमें वह सम्पदा गाड़ता था। अब वहाँ भी नारद पहुँचे, कहा-चलो, बेटा! दूसरा भव भी आ गया, अब तो चलो। तब वह साँप फन उठाकर कहता है-महाराज! यहाँ पर धन गड़ा हुआ है। यदि मैं इसकी रक्षा नहीं करता, तो सारी सम्पदा बरबाद हो जायेगी। वहाँ से नारद जी विष्णु जी के पास आए। बोले-महाराज! मेरी ही गलती थी, जो मैंने कहा था कि आप किसी को नहीं बुलाते। मैंने बहुत कोशिश की, बूढ़े, जवान, बच्चे सबसे कहा, मगर कोई यहाँ आने के लिए तैयार नहीं हुआ।
किसी का कोई काम परा नहीं होता, किसी की कोई बात पूरी नहीं होती। किसी का बच्चों में मोह है कोई कहता है कि 5 साल बाद जायेंगे 5 साल भी हो जाते हैं, जीवन भी पूरा हो जाता है, किन्तु विषयों से कोई मुख नहीं मोड़ता। इस तहर से कोई यहाँ आने के लिए तैयार नहीं होता है। भला बतावो किसी का काम भी पूरा होता है क्या? करने को कुछ-न-कुछ पड़ा ही रहता है। अब यह इच्छा है, अब यह इच्छा है, इस तरह से काम पूरे हो ही नहीं पाते हैं, । जिन्दगी अगर इच्छाओं से बितायी, तो ऐसा मनुष्यभव पाना व्यर्थ रहा। अब करने की बात क्या है कि अपनी इच्छाओं को त्यागकर अपने स्वरूप को देखो, अपने भगवान् में चित्त लगाओ, अपने आनन्दमय प्रभू की भक्ति में ही रहो और अपने में अपने आप सुखी हो। किसी अन्य से सुख की आशा रखना व्यर्थ है।
इन्द्रोऽप्याशविन्वतो दु:खी गताशोऽसंगक: सुखी। स्वाथ्यमेव गताशत्वं स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम ।। 4-15 ।।
देखो, इन्द्र भी हो और आशा करे, तो वह दुःखी है। अतः आत्मा में स्थिर रहो और किसी भी पदार्थ की आशा न करो। अपने आत्मा के सहज स्वरूप में, जो कि एक चैतन्यशक्ति मात्र है, ऐसा अनुभव हो जाये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, आनन्दघन हूँ, सबसे निराला हूँ, ऐसा अनुभव हो जाये, तो जीवन सफल हो
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