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________________ I अनादिकाल से यह जीव अपनी आत्मा को न पहचानने के कारण ही संसार में भटक रहा है। यह संसार असार है, इसमें रंचमात्र भी सुख नहीं है प्रातः काल का समय था । एक छोटा-सा बालक अपने आँगन में खेल रहा था । उसने सूर्य से निकलती हुई किरणों को देखा। उसे वे किरणें बहुत अच्छी लगीं। उसकी इच्छा हुई कि इन किरणों को पकड़ लिया जाये । वह अन्दर गया और अपने स्कूल का बस्ता ले आया । उसने उसे सूर्य के सामने खोल दिया और झट से बंद कर लिया। वह बालक बहुत खुश था । वह सोच रहा था कि मैंने आज बहुत अच्छी वस्तु को इस बस्ते में कैद करके रख लिया है। वह घर के अन्दर पहुँचा और अपनी माँ से बोला- माँ! आज मैं ऐसी अद्भुत वस्तु को लाया हूँ जिसे तुमने आज तक नहीं देखा होगा । आप इस बस्ते को खोलकर देखें । आप उसे देखेंगी तो आश्चर्य में पड़ जायेंगी। माँ ने उसका बस्ता खोला। वह भी साथ में बैठा हुआ था। जैसे ही उसने बस्ते को खोलकर देखा तो उसमें कुछ नहीं था। उस बच्चे की आँखों में आँसू आ गये । वह सोच में पड़ गया कि मैंने तो अपने हाथों से किरणों को इसमें भरा था । ये कैसे हो गया कि बस्ते में कुछ नहीं है? वह रोया और दुःखी - दुःखी हो गया । यह कहानी सभी संसारी प्राणियों की है । आप भी जब प्रातः काल घर से निकलते हैं तो आपको लगता है कि हम कुछ एकत्रित करने के लिये निकले हैं और जैसे ही सूर्य अस्त होने को होता है तो आप अपना बैग बंद कर लेते हैं, अपना डिब्बा बंद कर लेते हैं कि हमने इसमें कुछ रख लिया है। लेकिन जैसे ही प्रातःकाल होता है, तो खाली नजर आता है । जितनी भी इच्छाएँ थीं, जितनी भी भावनायें थीं, जो-जो वस्तु संग्रह करने की इच्छायें थीं, वो सारी की सारी आप सोचते हैं कि मैंने पूरी कर लीं, अब सो जायें, अब कल मुझे कुछ नहीं करना है। लेकिन जैसे ही प्रातः काल होता है, आपका डिब्बा फिर खाली हो जाता है। इच्छाओं को जितना - जितना पूरा करो, ये उतनी - उतनी ही बढ़ती जाती हैं। आज हजार रुपये की इच्छा है, कल दस हजार की हो जाती है। जब दस हजार मिल जाते हैं तो इच्छा एक लाख की हो जाती है। इस इच्छारूपी गर्त 42 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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