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तुम्हें भी भेद-विज्ञान हो गया है, अब तुम सिंह के क्रूर भाव को छोड़ो और आत्मा के परमशान्त भाव को धारण करो। तुम्हारे ही वंश में पहले एक सिंह ने मुनिराज के उपदेश से ऐसा ही भेदविज्ञान किया था और दसवें भव में भरतक्षेत्र में अन्तिम तीर्थंकर महावीर हुआ था। इसी प्रकार आदिनाथ भगवान् के जीव ने वज्रजंघ के भव में जब मुनिराज को आहारदान दिया था, तब सिंह और बंदर ने एक साथ उसकी अनुमोदना की थी, उसके बाद दोनों ने एकसाथ मुनिराज का उपदेश भी सुना था और जातिस्मरण ज्ञान पाया था। उसके बाद दूसरे भव में भोगभूमि में शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान प्राप्त करके आदिनाथ भगवान् के पुत्र हुये और मोक्ष गये।
बंदर की यह बात सुनकर सिंह बहुत खुश हुआ। उसने हिंसक-भाव छोड़ दिया और शान्त-भाव धारण करके भेदज्ञान प्रगट किया। तत्पश्चात सिंह और बंदर एक दूसरे के साधर्मी मित्र बन गये।
इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है -
जिस प्रकार मूर्ख सिंह और बंदर शरीर की छाया को अपनी मानकर दुःखी हुए, वैसे ही अज्ञानी जीव शरीर को आत्मा मानकर दुखी होता है। जैसे समझदार सिंह और बंदर ने शरीर की छाया को अपने से भिन्न जाना, तब वे दुखी नहीं हुये। वैसे ही हम भी देह से भिन्न अपनी आत्मा का सच्चा स्वरूप जानें और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र को छोड़कर रत्नत्रय को धारण करें, तब ही यह संसार का परिभ्रमण समाप्त होगा। और हम अनन्तकाल के लिये अनन्तसुखी हो जायेंगे।
जैसे छाया पर छपट्टे मारने से सिंह को कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, वैसे ही छाया के समान बाह्य पदार्थों में राग-द्वेष करने से सुख माने और उसमें चाहे जितने झपट्टे मारे, तो भी जीव को रंचमात्र भी सुख नहीं मिल सकता। शरीर से भिन्न आत्मा को पहचान कर ही जीव सुखी हो सकता है।
जैसे कहानी का सिंह जंगल का राजा है, वैसे ही हे जीव! तू तीन लोक में महान चैतन्य राजा है। सिंह राजा ने अपने सच्चे स्वरूप को भुला दिया और छाया को सिंह मान लिया, इस कारण वह कुँए में गिरकर दुःखी हुआ। वैसे ही
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