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रोता हुआ कहने लगा कि अरे! मेरा यह ठाठ-बाट यहाँ से क्यों जा रहा है? मुझसे पूछे बिना यह सब कहाँ जाने लगे? परन्तु जरा विचार करो कि वे तुम्हारे थे ही कहाँ? वे तो सब अपने कारणों से रुके थे और उनका काम पूरा होने पर जाने लगे। वे क्या आपसे पूछकर आये थे, जो तुझसे पूछकर जायेंगे? ये तो तेरे थे ही नहीं। तू प्रत्यक्ष ही उनसे भिन्न था। तू इन्हें अपना मानकर व्यर्थ ही दुःखी होता है।
इसी प्रकार पागल के समान मोही जीव संयोग को अपना मानकर खुश होता है, तथा उनके वियोग होने पर 'हाय-हाय! मेरा सबकुछ चला गया' इस प्रकार खेद करता है। परन्तु ये संयोग तेरे थे ही कब? ये तो स्पष्ट रूप से तुझसे भिन्न हैं। ये तेरे कारण नहीं आये तथा तेरे रोकने से रुकेंगे भी नहीं। यहाँ न तो कोई कुछ लेकर आया है और न ही कुछ लेकर जायेगा। यहाँ की जरा भी सम्पत्ति साथ में जाने वाली नहीं है। जिस प्रकार रात्रि में स्वप्न में देखा गया दृश्य जाग जाने पर झूठा मालूम होने लगता है। उसी प्रकार सत्य स्वरूप का बोध हो जाने पर ये समस्त संयोग झूठे प्रतीत होने लगते हैं। अतः सत्य को समझो और इन संयोगों से मोह व राग मत करो। राम, पांडव आदि वैभवशाली पुरुष भी भौतिक सम्पत्ति का त्याग करके ही संसार से मुक्त हुये हैं। भरत चक्रवर्ती छ: खण्ड के स्वामी होकर भी उस वैभव से निर्लिप्त रहे, जैसे कमल कीचड़ से निर्लिप्त रहता है।
आज तक जितने जीव सिद्ध (सुखी) हुये हैं, वे भेद विज्ञान से सिद्ध (सुखी) हुये हैं और जितने जीव संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, वे भेद विज्ञान के अभाव में ही संसार में भ्रमण कर रहे हैं।
शरीर और आत्मा को एक मानना ही संसार भ्रमण व दुःख का मूल कारण है। आत्मा सिंह के समान शूरवीर है, फिर भी वह अपने को भूलकर अज्ञान के कारण दुःखी हो रहा है।
एक सिंह था। उसे भूख लगी। जंगल में एक वृक्ष के ऊपर एक बंदर बैठा था, नीचे उसकी छाया पड़ रही थी। उस छाया को देखकर सिंह को विचार आया कि मुझे अच्छा शिकार मिला। परन्तु बंदर तो ऊपर बैठा था, अतः सिंह ने
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