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तालाब में जाकर डुबकी लगा लेवें, तो सारी मक्खियों का प्रयास बेकार हो जाता है। वे मक्खियाँ उन पुरुषों को कष्ट नहीं दे पाती हैं । उसी प्रकार इस जगत के जीव पर अनेक विकल्प - विपदायें मंडरा रही हैं। यदि इस जगत का यह प्राणी अपने ज्ञानसागर में डूब जाये, तो जो अनेक प्रकार के विकल्प हैं, वे उन्हें परेशान नहीं कर पायेंगे। उसके विकल्प समाप्त हो जावेंगे और वह मोक्ष को प्राप्त करेगा ।
हे आत्मन! यदि तू अपने आपको सबसे निराला, शुद्ध, अविनाशी समझे, तो तुझे अविनाशी सुख प्राप्त होगा । तेरे को कभी आकुलतायें - व्याकुलतायें नहीं आवेंगी और यदि तूने अपने को इसके विपरीत समझा, मैं तो संसार के समस्त प्राणियों से मिला हुआ हूँ, यह मेरी बुआ है, यह मेरे फूफा हैं, यह मेरे भाई हैं, यह मेरी माँ है, तो उसको कष्ट ही रहेगा। मैं तो जैसा हूँ, तैसा ही सदा बना रहनेवाला हूँ। मैं ज्ञान मात्र हूँ, सबसे निराला हूँ - ऐसा अपने आपको निरखो । तू अपने को भगवान् रूप मान । तेरे में तो कोई विकार ही नहीं दिखते हैं, तू तो निर्विकार है। तेरे में दुःख कहाँ हैं? तू तो सदा सुखी है। दुखों का रंच भी तेरे में नाम नहीं है। तू अपने को शुद्ध चैतन्यमात्र समझ । जो पर्यायमात्र अपना अनुभव करे, वह परसमय अर्थात मिथ्यादृष्टि है और जो ध्रुव स्वभावमय अपन अनुभव करे वह स्व समय अर्थात सम्यग्दृष्टि है। अपने सहज स्वरुप मात्र अपनी श्रद्धा करना सो परमार्थ अमृत का पान करना है। इस अमृतपान से आत्मा अमर व अनुपम आनन्दमय हो जाता है। आनन्द तो यहीं इस आत्मा में है। यदि किसी बाह्य में दृष्टि न हो, मोह न हो, विकल्प न हो, तो हमारा ज्ञान जितना भगवान् का है उतना हो जायेगा, जितना आनन्द भगवान् में है उतना हो जायेगा ।
सुख का उपाय अपनी स्वतंत्रता का विश्वास है। यदि दूसरे पदार्थों में ही लगे रहें, तो आकुलतायें आयेंगी । सो यह सुख और दुःख किसका फल है ? अरे सुख-दुःख तो मोह का ही फल है। जगत के जीवों को देखो, बाह्य में मोह करके सुखी और दुःखी होते हैं। देखो, इस जगत के जीवों को जो दुःख होते हैं, वे उनके मोह और मिथ्यात्व के ही परिणाम हैं। 'मोह महा मद पियो अनादि,
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