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एक पुरानी घटना है कि वज्रदंत चक्रवर्ती जब फूल में मरे हुये भँवरे को देखते हैं तो देखकर विचार करते हैं कि यह भँवरा फूल की सुगंध में आसक्त होकर इस फूल के अंदर ही रहा और मर गया। इस घटना को देखकर चक्रवर्ती को वैराग्य हो गया । कई फूल ऐसे होते हैं जो कि दिन में तो खिले रहते हैं और शाम होते ही बंद हो जाते हैं। भँवरा मकरंद-रस चूसने के लिये शाम को बैठ गया और उसी फूल में बंद हो गया। जिस भँवरे में इतनी ताकत है कि वह लकड़ी में छेद कर सकता है, एक ओर से छेद करके दूसरी ओर से निकल जाता है, किन्त वही भवरा मकरन्द-रस की आसक्ति के कारण फल की कोमल कोमल पंखुड़ियो के अंदर ही बंद रहकर मर जाता है, इसी तरह आत्मा में तो केवलज्ञान की शक्ति, आनन्द की शक्ति, अनन्त शक्तियाँ है; परन्तु अज्ञानी जीव विषयों में आसक्त होकर अपने ज्ञान प्राण को बरबाद कर रहा है। आत्मा में क्लेश या आनन्द केवल जानने की कला पर निर्भर है। लो, शरीर को देखो तो आनन्द खत्म हो गया और लो ज्ञानस्वरूप देखने में उपयोग बन गया तो आनन्द प्रगट हो गया। ऐसी महान चमत्कार की कला से युक्त यह भगवान् आत्मा है। ज्ञानी जीव जानता है कि जैसा सुख का भण्डार सिद्ध भगवान् में है, वैसा ही मेरे अंदर भी है। मेरा सिद्ध पद कहीं बाहर नहीं, मेरे अंदर ही है।
सिद्ध भगवान् के परमसुख की बात सुनकर एक जिज्ञासु को सिद्ध पद की भावना जागृत हुई। वह सिद्ध भगवान की ओर देखकर उन्हें बुलाता है कि, हे सिद्ध भगवान! यहाँ पधारो। परन्तु सिद्ध भगवान तो ऊपर सिद्धालय में विराजमान हैं, वे नीचे आयेंगे क्या? नहीं। और सिद्ध भगवान को देखे बिना जिज्ञासु को समाधान नहीं हो सकता। अंत में उसकी एक निर्ग्रन्थ मुनिराज से भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि तू अपने में देख, तो तुझे सिद्धपद दिखायी देगा। अपने ज्ञानदर्पण को स्वच्छ करके उसमें देख तो तुझे सिद्ध भगवान् अपने में दिखाई देंगे। जब उसने अंतर्मुख होकर सम्यग्ज्ञानरुपी दर्पण में देखा तो उसे अपने में सिद्ध भगवान दिखाई दिये, अपना स्वरुप ही सिद्ध भगवान के समान देखकर उसे परम आनन्द व प्रसन्नता हुई। इसका तात्पर्य है कि हमारा सिद्ध पद, अनन्त सुख मेरे ही अंदर है, बाहर में नहीं। अंदर दृष्टि होने का नाम मोक्ष
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