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में ले जाने वाला, तेरे को इस संसार में भटकाने वाला कोई दूसरा इस जगत में है क्या ? कोई नहीं है। आप जैसे-जैसे परिणाम करते हो, उसी के अनुसार कर्मों का बन्ध स्वतः (आटोमेटिक) होता चला जाता है। यदि संसार के इन दुःखों से बचना चाहते हो तो अपने स्वरूप को देखो। दूसरा कोई उपाय नहीं है। धर्म का पालन इसी को कहते हैं। धर्म बाहर नहीं, वेश-भूषा में नहीं, नाना स्थानों में नहीं, नाना पद्धतियों में नहीं। केवल निज सहज स्वभाव में, यह ही मैं हूँ, ऐसा मान लेने से, ऐसा अंगीकार कर लेने से, ऐसी दृष्टि बना लेने से ६ गर्म का पालन है। इस ही बात के लिये यह व्यवहार धर्म है। सत्संग इसीलिये किया जाता है कि हमारी दृष्टि ऐसी बनी रहे कि हम धर्म के पालन के योग्य बने रहें।
__ यह आत्मा ज्ञान का पिंड है, अन्य समस्त पदार्थों से भिन्न है, स्वभाव से निर्विकार है, सहज आनन्दमय है। जैसे सुख के भण्डार प्रभु हैं वैसी ही यह मेरी आत्मा है। ज्ञानी जीव इन्द्रिय-विषयों में सख नहीं मानते जबकि अज्ञानी जीव जो आत्मिक सुख को नहीं पहचानते, इन्द्रिय-विषयों में ही सुख ढूँढ़ते रहते हैं और अपनी इस अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यपर्याय को व्यर्थ में ही समाप्त कर देते हैं। अगर कोई कुत्ते को लाठी मारता है तो कुत्ता उस लाठी को चबाने लगता है। वह समझता है कि मेरी दुश्मन यह लाठी है, मेरा अहित करने वाली यह लाठी है। जबकि शेर को कोई लाठी या तलवार से मारे तो शेर यह नहीं समझता कि मेरा दुश्मन लाठी या तलवार है, बल्कि वह समझता है कि यह व्यक्ति ही मेरा दुश्मन है, इसलिये वह शेर उस पुरुष पर ही हमला करता है। एक की दृष्टि है कि मेरा दुश्मन लाठी है और दूसरे की दृष्टि है कि मेरा दुश्मन पुरुष है। यही ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर है। ज्ञानी देखता है कि धन, वैभव, परिवार किसी में मेरा सुख नहीं है। मेरा सुख मेरे अन्तर से उठता है,परन्तु अज्ञानी यह देखता है कि धन, वैभव, परिवार आदि में ही सुख है। ज्ञानी यह सोचता है कि बाह्य पदार्थों से सुख नहीं होता, पर अज्ञानी यही सोचता है कि बाह्य पदार्थों पर ही सुख-दुःख निर्भर है। अज्ञानी जीव ने अपनी आत्मिक शक्ति को भूलकर अपनी प्रभुता को बरबाद कर दिया है।
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