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काम है, बड़ा ही सुन्दर काम किया है आदि । उसे पता नहीं कि इस प्रशंसा के फल में मेरे को विपदा ही आवेगी ।
यश की चाह करना व्यर्थ है । मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, एक ज्ञानदर्शन चैतन्य पदार्थ, इसे तो कोई जानता ही नहीं है । इसकी कोई चर्चा ही क्या करे, यश ही कोई क्या कर सकता है। यहाँ किसमें यश चाह रहे हो ? यह यह लोगों का समुदाय जो कि स्वयं कर्मप्रेरित है, स्वयं असहाय है, स्वयं बरबाद हो रहा है, जो कि मरेगा, जन्मेगा, संसार में दुःख पायेगा, ऐसा जो यह आज का दिखने वाला लोक समुदाय है उसमें यश की चाह की जा रही है। ये कोई मेरे प्रभु हैं क्या, इनसे मेरा पूरा पड़ेगा क्या ? तो जिसमें यश चाहा जा रहा है, वह समुदाय स्वयं अशरण है, उसमें यश होने से मेरा किंचित्मात्र भी लाभ नहीं है । तो जिसमें यश चाहा जा रहा है, वह लोक समुदाय भी अपावन है, वे स्वयं बरबाद हो रहे हैं। तो इनमें यश चाहने की बात बिल्कुल व्यर्थ है।
जगत के 10-20 हजार व्यक्तियों के बीच मैनें जरा अच्छा सुन लिया तो क्या इज्जत बढ़ गई ? यदि यहाँ न रहते, अन्यत्र कहीं रहते तो यह समागम मेरे को क्या था ? यदि हम किसी दूसरी पर्याय में होते, तो इस रंग ढंग का क्या ख्याल आता ? यदि हमने अभी अपने स्वरूप को नहीं पहचाना, तो दुर्दशा हो जायेगी। इस जगत में कोई किसी का मोह करता है, कोई किसी का मोह करता है, पर मोही प्रायः सभी हैं । इसी कारण दुःखी भी सभी हैं ।
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अज्ञानी शरीर को ही आत्मा मानकर व्यर्थ ही दुःखी होता है। जैसे दर्पण में दिखने वाले प्रतिबिम्ब को ही कोई मूर्ख अपना रूपसमझकर का और फिर उस प्रतिबिम्ब के नष्ट होने पर अपना ही नाश मानकर दुःखी होवे, वैसे अज्ञानी / बड़ा-मूर्ख अपने को देहरूप ही मान रहा है। मैं मनुष्य, मैं पुरुष, मैं स्त्री, ऐसा मानकर शरीर की चेष्टाओं को ही अपनी मान रहा है । यह जीवतत्त्व के संबंध में बड़ी भूल है । जिसको देह में आत्मबुद्धि है और जो चैतन्यस्वभावी आत्मा को नहीं जानता, वह जीव मिथ्यात्व के कारण से संसार में भ्रमण करता हुआ जन्म-मरण के दुःख भोगता है । मिथ्यात्व के रहते 'चाहे जो करो, किन्तु दुख मिटेगा नहीं और सच्चा सुख होगा नहीं । अतः मिथ्यात्व को महादुःखदायक
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