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________________ एक नगर में एक मुनि महाराज पधारे। जैसे ही जिनमंदिर में उनका प्रवेश हुआ और प्रवचन हुये उसके बाद कुछ लोग मुनि महाराज जी के पास पहुँचे और बोले कि हमारे नगर में एक अत्यंत दुःखित महिला रहती है, उसका पति मर गया है, बहुत दिनों से उसने कुछ नहीं खाया, वह केवल शय्या पर पड़ी रहती है और शोक करती रहती है, आप अगर जाकर के उसको संबोध दें तो शायद उसका अंतिम समय सुधर जाये । यह सुनकर महाराज बोले कि ठीक है, अगर हमारे उपदेश से उसकी गति सुधरती है तो चलो हम उपदेश देने चलते हैं। महाराज जी जैसे ही उस दुःखयारी महिला के घर पहुँचे, वह महिला कराह रही थी और कह रही थी कि मेरा इस संसार में कोई नहीं है । मुनि महाराज एकदम आश्चर्यचकित होकर उस महिला से कहते हैं कि, माता! तूने यह मंत्र कहाँ से सीखा, यह तो महामंत्र है । महिला भी यह सुनकर के अवाक् रह जाती है कि मैं तो शोक कर रही हूँ, कौन - सा मंत्र जप रही हूँ ? उसने महाराज से कहा कि आप मुझसे मजाक तो नहीं कर रहे हैं, मेरी हँसी तो नहीं उड़ा रहे हैं ? मुनि महाराज ने उससे कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं । तुम एक ऐसे महामंत्र का जाप कर रही हो जिसे कोई निकट - भव्य आत्मा ही कर पाती है। लेकिन मंत्र थोड़ा-सा अधूरा रह गया है। इसे पूरा कर लो तो तुम्हारा कल्याण हो जायेगा। महिला ने आश्चर्य से पूछा, अधूरा मंत्र ? मुनि महाराज ने कहा कि हाँ, तुम अधूरा मंत्र जप रही हो। अभी तुम जप रही थीं कि मेरा इस संसार में कोई नहीं है, इसके आगे बस इतना और लगा दो कि तू भी इस संसार की नहीं है, तू भी किसी की नहीं है । न तेरा कोई है, न तूं किसी की है। 'तूं चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी ।' तुम तो चैतन्यमयी आत्मा हो और शेष शरीर आदि अचेतन / जड़ हैं। उससे तुम्हारा कोई नाता नहीं है । इस प्रकार की भावना भाते हुये इस मंत्र को जपना प्रारंभ कर दो तो तुम्हारा कल्याण हो जायेगा । महिला को बात समझ में आ गई और उसका सारा शोक समाप्त हो गया । जैनधर्म कहता है कि कोई कर्म ही मत करो। किसी पदार्थ में कर्त्तव्य - बुद्धि ही मत रखो। अनादिकाल से यह जीव अपने आपको (आत्मा को ) न पहचानने 3172
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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