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अपने स्वभाव में लीन रहने पर कर्मों का बंध नहीं होता।
यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्र कदा अपि।
तथा कर्मभिः न लिप्यते, यदि रतिः आत्मस्वभावे ।। जिस तरह कमलिनी का पत्र कभी भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी तरह यदि आत्मस्वभाव में रति हो, तो जीव कर्मों से लिप्त नहीं होता।
पर द्रव्यों से भिन्न आत्मा की श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। जितने भी परद्रव्य व परभाव हैं वे आपके नहीं हैं। यदि किंचित् मात्र भी कषायें आत्मा में रहती हैं, तो उस आत्मा को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है।
भरत जी आदिनाथ भगवान् के समवशरण में जाकर पूछते हैं, हे भगवान्! मेरा छोटा भाई एक वर्ष से तपस्या कर रहा है, पर उसे केवल–ज्ञान क्यों नहीं हो रहा है?
भगवान् कहते हैं-बाहुबली के मन में थोड़ा-सा विकल्प है। वे जानते हैं कि मेरा तो इस संसार में कुछ नहीं है, यह वसुधा मेरी नहीं है लेकिन मैं भरत की जमीन पर तपस्या कर रहा हूँ। यहि छोटा-सा विकल्प रह गया है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद यदि ये नोकषायें भी मन में रहती हैं, तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। बाहुबली के पूरे शरीर पर अनेक कीड़े-मकोड़ों ने बिल बना लिये, लेकिन वे बिल और कीड़े-मकोड़े उनके लिये बाधक नहीं हो रहे हैं, लेकिन यह छोटी सी कषाय बाधक हो रही
है।
भरत जी ने जाकर बाहुबली से क्षमा याचना की कि यह वसुधा किसी की भी नहीं है। विकल्प दूर होते ही बाहुबली को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। पूजा में पढ़ते हैं -
फाँस तनिक-सी तन में साले।
चाह लंगोटी की दुःख भाले।। यहाँ परमाणु मात्र भी किसी का नहीं है। हम राग-द्वेष के कारण तो कई बार मान लेते हैं कि संसार में कुछ भी हमारा नहीं है। यही भावना अगर वीतरागता के कारण भाना शुरू कर दो तो आपका कल्याण हो जायेगा।
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