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के समान नहीं है, तूं तो भगवान् के समान चैतन्य-स्वरुपी आत्मा है। निर्मल ज्ञानदर्पण में तूं अपने स्वरूप को देख, तेरी चैतन्य आत्मा हमारे साथ मेल खाती है या इस जड़ शरीर के साथ। जड़ चेतन का भेद होते ही तुझे समझ में आ जायेगा।
चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरत चिन्मूरत अनूप। आत्मा का स्वरूप उपयोगमयी, अमूर्तिक, चैतन्यमय व अनुपम है। सर्वज्ञ भगवान ने आत्मा को ज्ञान आनन्द स्वरूप देखा है, देह से भिन्न देखा है। ऐसी आत्मा को जानने से देह से एकत्व बुद्धि छूट जाती है। आत्मा के स्वभाव में दुःख नहीं है। आत्मा तो शरीर से भिन्न आनन्दमयी ब्रह्मस्वरूप है। परमानन्द स्त्रोत में कहा है -
नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा।
अयमात्मा स्वभावेन, देह तिष्ठति निर्मलः ।। जिस प्रकार कमल हमेशा जल से भिन्न रहता है उसी प्रकार अपनी आत्मा स्वभाव से शरीर से भिन्न निर्मल रहती है, पर ध्यान से रहित व्यक्ति उस आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते।
आनन्दं ब्रह्मणोरूपं, निज देहे व्यवस्थितं। ध्यान हीना न पश्यन्ति, जात्यन्धाइव भास्करम्।। आनन्दमयी ब्रह्मस्वरूप आत्मा इस देह के भीतर विराजमान है पर ध्यान से रहित व्यक्ति उसे नहीं देख पाते जिस प्रकार जन्म से अन्धा व्यक्ति सूर्य को नहीं देखपाता।
कर्म और शरीर आजीव हैं, उसको ही जीव का स्वरुप समझना यह तो सर्वज्ञ भगवान् के उपदेश से विपरीत मान्यता है। अनन्त जीव सर्वज्ञ केवली भगवान् हुये हैं। उन सब भगवन्तों ने आत्मा को उपयोग स्वरूप देखा है आत्मा को जड़रूप या राग-द्वेषरूप नहीं देखा है।
द्रव्य कर्म मलैर्मुक्तं, भाव कर्म विवर्जितम।
नो कर्म रहितं सिद्धं, निश्चयेन चिदात्मनः ।। आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म व शरीरादि नौ कर्म से भिन्न चैतन्यमयी है। ऐसी
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