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व जानता है, वह स्वयं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होता है। इसलिये आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग स्वरूप है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं।
परद्रव्यों से भिन्न आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। अतः सब कुछ छोड़कर पर द्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा को जानने का पूरा प्रयत्न करना चाहिये।
आत्मा मे अनन्त शक्ति है, पर जब तक इस जीव को अपनी आत्मिक शक्ति का ज्ञान नहीं होता, तब तक कर्म इसे संसार में भटकाते रहते हैं रुलाते रहते हैं। पर जब यह गुरु के उपदेश से प्रतिबुद्ध होता है, अपनी शक्ति को पहचान लेता है, तब सारे कर्म अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं।
एक सिंह का बच्चा था। वह भूल से बकरों के झुण्ड में शामिल हो गया और अपने को बकरा समझकर बकरे के समान व्यवहार करने लगा। दूसरे अनुभवी वृद्ध सिंह ने उसे देखा और जागृत करने के लिए उसने सिंहनाद किया। सिंह की गर्जना सनकर झण्ड के सारे बकरे तो डरकर भाग गये लेकिन सिंह का बच्चा वहीं निर्भयता से खड़ा रहा, उसे सिंह से डर नहीं लगा। ___ तब वह वृद्ध सिंह उसके पास आकर प्रेम से बोला- अरे बच्चे! तू मैं-मैं करने वाला बकरा नहीं है। तूं तो महापराक्रमी सिंह है। देखो, मेरा सिंहनाद सुनकर बकरे तो सब डरकर भाग गये, लेकिन तुझे डर क्यों नहीं लगा। क्योंकि तुम तो सिंह हो, हमारी जाति के हो। यदि विश्वास न हो तो विशेष परिचय करने के लिये मेरे साथ चलो।
ऐसा कहकर वह अनुभवी सिंह उसे अपने साथ ले गया और एक कुँए के पास ले जाकर बोला- स्वच्छ पानी में देखो, तेरा चेहरा किसके समान है ? सिंह के समान है या बकरे के समान ? सिंह के बच्चे ने जैसे ही गर्जना की, वैसे ही उसे आभास हो गया की मैं सिंह हूँ। भूल से मैं अपना सिंहपना भूलकर अपने को बकरे के समान मान रहा था।
इसी प्रकार भगवान दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को उपदेश दे रहे हैं अरे जीव! तूं तो हमारी जाति का परमात्मा है। जैसी उपयोग स्वरूप मेरी आत्मा है, वैसी ही उपयोगस्वरूप तुम्हारी भी आत्मा है। तूं देह वाला या रागी-द्वेषी बकरे
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