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पत्नी मनोदया को एक क्षण भी नहीं छोड़ता था। एक दिन मनोदया का भाई विवाह के दो दिन बाद ही बहन को लेने आ जाता है। जब मनोदया अपने घर(माँ के घर) अपने भाई उदय-सुन्दर के साथ जाने लगी, तब वह भी इनके साथ अपनी ससुराल चल देता है। रास्ते में चलते-चलते बज्रबाहु की दृष्टि एक पर्वत पर पड़ती है। यह देखकर बज्रबाहु के मन में अनेक विचार उत्पन्न होने लगते हैं। क्या यह पर्वत का अंग है? या यह कोई दूँठ पड़ा है, अथवा कोई साध तु है। जब यह निश्चय हो जाता है कि ये दिगम्बर साधु हैं, और अत्यन्त शान्त मुद्रा को धारण करने वाले हैं, तब वे उन्हें निहारते ही रहे। उनके लिए शत्रु-मित्र, महल-मसान, सोना-चाँदी सब एकसमान थे। घोर तपश्चरण करते, बाईस परीषह को सहन करने वाले वे महामुनिराज, बिल्कुल निस्पृही थे। इस प्रकार मुनिराज को देखकर बज्रबाहु की दृष्टि मुनिराज के ऊपर खम्भे में उत्कीर्ण के समान निश्चल हो जाती है। ऐसी चेष्टा देखकर उदयसुन्दर उपहास करता हुआ, हँसी करता हआ अपने जीजा जी से कहता है कि- जीजा जी। आप मुनिराज को बहुत देर से देख रहे हैं। क्या आपका विचार मुनिराज बनने का है? बज्रबाहु कहते हैं-उदयसुन्दर! तेरा क्या विचार है? उदयसुन्दर हँसकर बोलते हैं कि मेरा क्या विचार है? जो जीजा जी का विचार है, सो मेरा विचार है। उदयसुन्दर जानता था कि जो अपनी पत्नी में इतना आसक्त हो कि दो दिन भी अपनी पत्नी को माँ के यहाँ अकेला नहीं भेज सका, स्वयं साथ हो लिया, वह क्या मुनि-दीक्षा लेगा? बज्रबाहु उदयसुन्दर का उत्तर सुन अपने रथ से उतरते हैं महाराज के पास जाकर मुनिदीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय कर लेते हैं। अब उदय सुन्दर जीजा जी को बहुत समझाते हैं, माफी माँगते हैं कि मैंने तो मजाक किया था, आप तो सच में ही समझ गये। मनोदया भी बहुत समझाती है, किन्तु सब व्यर्थ हो जाता है। अब बज्रबाहु मुनिराज के पास जा अपने सब वस्त्र, आभूषण उतार मुनिदीक्षा ले लेते हैं। अपने केशों को अपने हाथों से घास के सदृश उखाड़ देते हैं और वहीं पद्मासन में आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं। यह देख उदयसुन्दर और मनोदया भी मुनिदीक्षा एवं आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ये सभी संसार के वैभव को क्षणभंगुर समझ कर जीर्ण तृण के समान छोड़
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