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स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊपर को ही जाता है।
मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन के उक्त चारों कारणों के क्रम से चार दृष्टान्तआविद्ध कुलाल चक्रवद् व्यपगत लेपालाम्बु वदेरण्डवीजवदग्निशिखावच्च ।। 7 ।।
कुम्हार द्वारा घुमाये गये चाक की तरह पूर्व प्रयोग से ऊर्ध्वगमन करता
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है ।
लेप दूर हो गया है जिसका, ऐसे तूम्बे की तरह संगरहित होने से ऊर्ध्वगमन करता है।
एरंड के बीज की तरह बन्धन रहित होने से अर्थात् एरंड का सूखा बीज जब चटकता है तब उसकी भिंगी जिस प्रकार ऊपर को जाती है, उसी प्रकार यह जीव कर्मों का बन्धन दूर होने पर ऊपर को जाता है। अग्नि की शिखा की तरह ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से ऊपर को गमन करता है।
मुक्त जीव का लोकाग्र से आगे न जाने का कारण धर्मास्ति- कायाभावात् । ।8 । ।
धर्मद्रव्य का अभाव होने से मुक्त जीव लोकाग्र भाग के आगे (अलोकाकाश में) नहीं जाते, क्योंकि जीव और पुद्गल का गमन धर्मद्रव्य की सहायता से ही होता है और अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव है। मुनिराज रत्नत्रय को धारण कर तप के माध्यम से समस्त कर्मों को आत्मा से विलग करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। ऐसे मुनिराजों के दर्शन मात्र से जीव मोक्षमार्ग को अंगीकार कर लेते हैं। अयोध्या नगरी में सुरेन्द्रमन्यु नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी पत्नी का नाम रानी कीर्तिसमा था। इनके बज्रबाहु नाम का एक बहुत ही सुन्दर रूपवान् पुत्र था। माता उसे बाल्यपन से ही मुनिराजों के समीप ले जाती थी। इस बालक के हृदय में मुनिराज की छवि व वचन अंकित हो गये थे। जब यह बालक युवा हो गया, तब इसका विवाह हस्तिनापुर के राजा इमवाहन व रानी चूड़ामणि की पुत्री मनोदया से हो जाता है। मनोदया भी इतनी रूपवान व गुणगान थी कि उसकी उपमा चाँद से बढ़कर दी जाती थी । बज्रबाहु अपनी
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