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जाता है।
अनगिनत भवों के बंधे हुये कर्म उदय में आ रहे हैं, जिससे यह जीव अपने स्वरूप से च्युत होकर परभावों में लगता है और यही संसारभ्रमण का कारण बनता है। अतः उन कर्मों की निर्जरा किये बिना हम-आपका भला नहीं हो सकता। यहाँ चार दिन की यह चाँदनी दिख रही है, कुछ वैभव प्रसंग आ रहे हैं, जिनमें अपने मन को स्वच्छन्द बनाया जा रहा है, हठ की जा रही है। ऐसा यह समय तो स्वप्न हो जायेगा। यहाँ के किये हये पाप के फल में इस जन्म-मरण की परम्परा में बहना होगा। तो कर्तव्य यह नहीं है कि जैसा मन ने चाहा वैसी हठ करके अपना मन खुश रखना। कर्तव्य यह है कि तप करके कर्मों की निर्जरा करना।
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