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यदि संसार के बंधन से छूटना चाहते हो तो जिनेश्वर देव संबंधी दीक्षा धारण करो। उस तप से शरीर का सुखियापना नष्ट हो जाता है। उपसर्ग परीषह सहने में कायरता का अभाव हो जाता है। जिससे स्वर्गलोक की रंभा, तिलोत्तमा भी अपने हावभाव, विलास, विग्रह आदि द्वारा मन को काम विकार सहित नहीं कर सकती है ऐसे काम को नष्ट करना तप है। इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्तन का अभाव हो जाना तप है। दोनों प्रकार के परिग्रह में इच्छा का अभाव हो जाना तप है। निर्जन वन में, पर्वतों की भयंकर गुफा में, जहाँ भूत, राक्षस आदि की छायाएँ विचरण करती हों, सिंह, व्याध्र आदि के भयंकर शब्द हो रहे हों, करोड़ों वृक्षों से अंधकार हो रहा हो, सर्प, अजगर, रीछ, चीता इत्यादि भयंकर दुष्ट तिर्यंचों का आना-जाना हो, ऐसे महाविषम स्थानों में भयरहित होकर ध्यानस्वाध्याय में निराकुल होकर रहना, तप है। आहार के लाभ-अलाभ में समभाव रखना, मीठा, खट्टा, कडुआ, कषायला, ठंडा, गरम, सरस, नीरस भोजन-जलादि में लालसा रहित सन्तोष रूप, अमृत का पान करते हुए आनंद में रहना, तप है। दुष्ट देव, दुष्ट मनुष्य, दुष्ट तिर्यंन्चों द्वारा किये गये घोर उपसर्गों के आने पर कायरता छोड़कर कम्पायमान नहीं होना, तप है। जिससे चिरकाल का संचित किया हुआ कर्म निर्जरित हो जाये, वह तप है। कुवचन बोलने वालों में, निंद्य दोष लगाने वालों में, ताड़न-मारन आदि में, द्वेषबुद्धि में कलुषित परिणाम नहीं करना तथा स्तुति पूजनादि करने वालों में रागभाव का उत्पन्न नहीं होना, तप
है।
पाँच महाव्रतों को धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, पाँच इन्द्रियों का निरोध करना, छह आवश्यकों को यथासमय करना, अपने सिर तथा दाढ़ी, मूंछ के बालों को अपने हाथ से उपवास के दिन लोंचना, तप है। दो माह पूरे हो जाने पर उत्कृष्ट, तीन माह पूरे होने पर मध्यम, चार माह पूरे हो जाने पर जघन्य केशलोंच होता है। वह भी तप है। शीतकाल, ग्रीष्मकाल, वर्षाकाल में नग्न रहना, यावज्जीवन, स्नानादि नहीं करना, जमीन पर शयन करना, अल्पनिद्रा लेना, दाँतों का मंजन नहीं करना, एक बार खड़े-खड़े ही रस -नीरस स्वाद छोड़कर थोड़ा भोजन करना आदि, इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्ड
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