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योनि को प्राप्त किया जाता है और इसी पर्याय से परमात्म पद भी प्राप्त किया जा सकता है।
यह शरीर निगोदिया जीवों का पिण्ड है, अशुचि है, घिनौना है, असार है। यह शरीर दुःख का कारण है, अनेक दुःख उत्पन्न करता है, अनित्य है, अस्थिर है, अशुचि है एवं कृतघ्न के समान है। करोड़ों उपकार करने पर भी जैसे कृतघ्न अपना नहीं होता है। अतः चाहे जैसे उपायों से इसे पुष्ट करना उचित नहीं है।
शरीर के बिना धर्म नहीं होता है। धर्म के बिना कर्मों का नाश नहीं होता, इसलिए अपने प्रयोजन के लिए विषयों में आसक्ति रहित होकर, सेवक के समान उसको योग्य भोजन देकर, यथाशक्ति जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग से विरोध रहित काय-क्लेशादि करना योग्य है। तप किये बिना इन्द्रियों के विषयों से लोलुपता नहीं घटती है। तप किये बिना तीनलोक को जीतनेवाले काम को नष्ट करने की सामर्थ्य नहीं होती है। तप बिना आत्मा को अचेत करने वाली निद्रा नहीं जीती जा सकती है। तप बिना शरीर का सुखिया स्वभाव नहीं मिटता है। तप के प्रभाव के द्वारा जो शरीर को वश में रखा होगा, उसे क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि परीषहों के आने पर कायरता उत्पन्न नहीं होगी। संयम धर्म से चलायमान नहीं होगा। तप कर्मों की निर्जरा का कारण है, अतः तप करना श्रेष्ठ
अपनी शक्ति को छिपाये बिना जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग से विरोध रहित हो, उस प्रकार तप करो। तप नामक सुभट की सहायता के बिना श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप धन को क्रोध, प्रमाद आदि लुटेरे एक क्षण में लूट लेंगे, तब रत्नत्रय सम्पत्ति से रहित होकर चर्तुगतिरूप संसार में दीर्घकाल तक भ्रमण करोगे। सभी तपों में प्रधान तप दिगम्बरपना है। कैसा है दिगम्बरपना? घर की ममतारूप फंदे को तोड़कर, देह का समस्त सुखियापना छोड़कर अपने शरीर में शीत, उष्ण, गर्मी, वर्षा, वायु, डांस, मच्छर, मक्खी आदि की बाधा को जीतने के सन्मुख होकर, कोपीनादि समस्त वस्त्रों का त्याग कर दश दिशारूप ही जिसके वस्त्र हैं ऐसा दिगम्बरपना धारण करना अतिशयरूप है। जिसके स्वरूप को देखने-सुनने पर बड़े-बड़े शूरवीर काँपने लगते हैं। हे भव्य जीवों
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