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को जाते हैं। तो लड़के कहने लगे- “पिताजी! राज्य अच्छा है या बुरा? अच्छा है, तो आप क्यों छोड़ रहे हैं और बुरा है, तो हमें क्यों दे रहे हैं?" सारांश यह हुआ कि एक हजार लड़कों ने भी दीक्षा का निश्चय कर लिया । बज्रदन्त ने छह महिने के पोते को राज्यतिलक कर दिया और सब जंगल को चले गये। इसे कहते हैं योग । आदिनाथ भगवान् 83 लाख पूर्व तक घर में भोग भोगते रहे, लेकिन जब निमित्त आया तो नीलान्जना के निधन को देखकर वैराग्य हो गया और आदिनाथ जंगल को चले गए, तपस्या में लग गए, छह महीने का योग रण कर लिया ध्यान में बैठे रहे। उनके साथ में चार हजार राजा और भी दीक्षित हुए थे। परन्तु उन्हें वैराग्य का ज्ञान नहीं था, इसलिए वे मुनिधर्म का पालन नहीं कर सके । आखिर सब मार्गच्युत हो गए। भाई ! अगर भोग से कल्याण होता तो उसे तीर्थंकर नहीं त्यागते । परन्तु उन्होंने भी भोगों को जहर के समान जानकर छोड़ दिया ।
सुकमाल जब महलों में रहते थे तो उन्हें सरसों का दाना भी चुभता था । वह रत्नों की रोशनी में 32 रानियों के बीच में सोता था । जब भोगों से उदास हुआ, तो कमंद के द्वारा उतरकर मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ले ली और योग धारण कर लिया। वही सुकमाल जंगल को जा रहा है, पैरों में कंकड़ चुभ रहे हैं, जाकर शिला पर बैठ जाता है। उसे गीदड़ी बच्चों सहित भक्षण करती है, फिर भी ध्यान में मग्न रहते हैं और तीन दिन में ही सर्वार्थसिद्धि चले जाते हैं। भोगी प्राणी की दशा उस मक्खी जैसी है जो मधु के लोभ में मधुपान करती हुई उसी में चिपक कर रह जाती है । उसी भाँति हम अपनी इस स्थिति से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे हैं, किन्तु जितना प्रयास करते हैं उतना ही उसमें ग्रसित हो जाते हैं। मनुष्य जितना पाता है, उससे अधिक भोगने का प्रयत्न करता है। वह कभी नहीं सोचता कि हम जिन भोगों में अपना विकास समझते हैं वह विकास नहीं, विनाश है। विकास तो योग में है, भोग तो सर्वनाशवान् हैं। योग का सुख सदा रहने वाला है । भोग में पड़ा रावण सीता का हरण करके ले गया। विमान में जा रहा था तो कहता है - "सीता! तुम मेरे भोग भोगो। मैं तीन खण्डों का राजा हूँ तथा सोने की लंका है, अठारह हजार
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