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परन्तु यह जीव परपदार्थों से भिन्न है और अपने गुण-पर्यायों के साथ एकता प्राप्त कर रहा है। यह कथा आज तक नहीं सुनी, न ही उसका परिचय प्राप्त किया है और न अनुभव है। जहाँ योग है, वहाँ पर भोग नहीं। ये एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं, जैसे अमृत और जहर एकसाथ नहीं ठहर सकते। योग 'अमृत' है और भोग 'जहर' है।
जिस प्रकार कुम्भकार के चक्र पर जो मिट्टी का घड़ा बनाया जाता है तथा वह जिस प्रकार दण्ड के द्वारा भ्रमण करता है, उसी प्रकार संसारचक्र के मध्य में जो जीवलोक है, वह भी निरन्तर पंचपरावर्तन के रूप में मोह-पिशाच के द्वारा निरन्तर भ्रमण कर रहा है। भ्रमण करने से लोक भ्रान्त हो रहा है तथा नाना प्रकार के तृष्णारूपी रोगों से नाना प्रकार की चिन्ताओं से आतुर रहता है। इसके शमन करने के लिए पंचेन्द्रिय विषयों का सेवन करता है, परन्तु उससे शान्तभाव को नहीं पाता। जैसे–मृगादि मृगमरीचिका में जलबुद्धि कर तृषा की शान्ति के अर्थ दौडकर जाते हैं परन्त वहाँ जल न पाकर फिर आगे दौडते हैं. वहाँ भी जल न पाकर परिश्रम करते-करते थककर अन्त में प्राण गँवाते हैं। इसी तरह यह प्राणी भी अंतरंग की कषायों के शमन करने के अर्थ पंचेन्द्रियों के विषयों में निरन्तर रत रहते हैं और दूसरों को भी यही उपदेश देते हैं।
तीनलोक की सम्पदा, चक्रवर्ती के भोग।
काक बीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग।। सम्यग्दृष्टि को अगर भोग भोगने पड़ रहे हैं तो ऐसा नहीं कि वह सात व्यसन सेवन करने लगे। अगर वह सात व्यसनों में लग जाये तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है, मिथ्यात्वी है। सम्यग्दृष्टि को जब भी वैराग्य का निमित्त आता है, तभी योग धारण कर लेता है, जैसे बज्रदन्त चक्रवर्ती राज्य कर रहे थे। माली एक सहस्त्रदल का कमल लेकर राजदरबार में आया तो वज्रदन्त ने देखा कि उसमें भौंरा मरा पड़ा है। उसे तुरन्त वैराग्य आ गया और वह विचार करने लगा कि जब एक इन्द्रिय के भोगों की यह दशा है, तो मेरी कैसी दशा होगी, क्योंकि मैं पाँच इन्द्रियों का भोगी हूँ? तभी योग धारण के लिए वह तैयार हो जाता है। अपने एक हजार लड़कों को बुलाया और कहा-बेटा! राज्य सम्भालो, हम वन
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