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प्रकार ट्रक मुनिराज को छू भी नहीं पाता। यह चमत्कार की घटना जंगल में आग की तरह चारों ओर फैल जाती है। सभी विरोधी सहम जाते हैं। विरोधियों का नेता आता है और मुनिराज के चरणों में नतमस्तक हो जाता है। क्षमा माँगता है, पश्चाताप करता है। मुनिराज ध्यान से बाहर आते हैं, सभी को क्षमा प्रदान करते हैं और अपना मंगल आशीर्वाद देते हैं। सभी विरोधी भव्यता से मंगल विहार कराते हैं।
इस प्रकार आज भी दिगम्बर मुनिराजों में सम्यक् तपस्या के बल पर चमत्कारिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे असामाजिक तत्त्व बहुत प्रभावित होकर अपने अवगुणों को सहज ही दूर कर लेते हैं। यह दृष्टान्त यह भी सिद्ध करता है कि वीतरागी दिगम्बर सन्त सदैव शत्रु – मित्र में कोई भेद नहीं करते। सभी को समान दृष्टि से देखते हैं और समतापूर्वक 22 परीषहों को सहन करते हैं।
ऐसे अनेक मुनिराज हुये, जिन्होंने इन परीषहों पर विजय प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त कर लिया।
धर्मघोष मुनिराज ने तृषा परीषह पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। धर्ममूर्ति, परम तपस्वी धर्मघोष मुनिराज एक माह के उपवास के बाद चम्पापुरी नगरी में पारणा के अर्थ गये थे। पारण करके तपोवन की ओर लौटते हुए रास्ता भूल गये, जिससे चलने में अधिक परिश्रम हुआ और उन्हें तृषा वेदना उत्पन्न हो गई। वे गंगा किनारे आकर एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गये। उन्हें प्यास से व्याकुल देख गंगादेवी पवित्र जल से भरा हुआ लोटा लाकर बोली-योगिराज! मैं ठण्डा जल लाई हूँ, आप इसे पीकर अपनी प्यास शांत कीजिए। मुनिराज ने जल तो ग्रहण नहीं किया और प्राणहरण करनेवाली तृषा वेदना के मात्र ज्ञाता-दृष्टा बनते हुए ध्यानारूढ़ हो गये। यह देख देवी चकित हुई और विदेहक्षेत्र में जाकर प्रश्न किया कि जब मुनिराज प्यासे हैं तब जल ग्रहण क्यों नहीं करते ? वहाँ गणधर देव ने उत्तर दिया कि दिगम्बर साधु न तो असमय में भोजन-पान ग्रहण करते हैं और न देवों द्वारा दिया हुआ आहार आदि ही ग्रहण करते हैं। यह सुनकर देवी बहुत प्रभावित हुई और उसने
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