________________
दुःखदायक अशुभफल भोगना ही पड़ता है। अतः यह सौभाग्य-दुर्भाग्य पहले समय में बोया हुआ अच्छा बुरा बीज ही है। पुराने कर्मों के उदय में यह जीव राग-द्वेष करता है और पुनः नवीन कर्मों का बंध कर लेता है। आचार्य समझाते हैं कि कर्म सभी जड़ हैं। इनके इशारे पर चलना मत सीखो। पुण्य के उदय में खुशी मत मनाओ और पाप के उदय में रोना नहीं । बस, यही तो कर्मों पर अपनी विजय है।
संसारचक्र में पड़ा हुआ यह जीव कभी ऊपर जाता है, कभी नीचे जाता है, कभी रोता है कभी हँसता है, कभी दीन-हीन दरिद्र अपने आप को अनुभव करता है, कभी अपने आप को धनकुबेर समझ बैठता है। कभी बलवान दिखाई देता है, कभी बलहीन। कभी बड़ा प्रतिभाशाली विद्वान होता है, तो कभी मूर्ख पागल भी बन जाता है। कभी बहुत सुन्दर शरीर पाता है, कभी ऐसा कुरूप असुंदर शरीरधारी बन जाता है कि जिसको देखना भी कोई पसंद नहीं करता। इस तरह नाटक में अभिनय करने वाले अभिनेताओं के समान संसारीजीव विविध प्रकार के रूप धारण किया करता है।
यह सारे खेल संसारीजीव अपनी इच्छा से नहीं करता, क्योंकि ऐसे मूों की संख्या तो नगण्य हो सकती है जो कि अपने आप को दुःख के कीचड़ में पटकना चाहें। संसारी जीव की दुःखदायक तथा सुखदायक परिस्थिति कर्म के उदय से हुआ करती है। अपने पूर्वसंचित शुभ कर्म से संसारीजीव को कुछ समय तक, जब तक कि शुभ कर्म का उदय बना रहता है, संसारिक सुख मिलता रहता है। जब अशुभ कर्म उदय में आता है, तो जीव को अनचाहा अनिष्ट दुःख मिलता है। यह सबकुछ होता कर्म के अनुसार है। शुभ कर्म के उदय को सौभाग्य कहते हैं और अशुभ कर्म के उदय को दुर्भाग्य कहते हैं।
दुर्भाग्य के उदय से दुःख में पड़े हुए जीव के कभी-कभी अचानक ऐसा शुभ कर्म उदय में आ जाता है कि जिसे चमत्कार ही कहा जा सकता है।
एक मनुष्य को कोढ़ का रोग था, उस रोग से उसका शरीर क्षतविक्षत हो गया था। जगह-जगह पीप बहती थी, इससे वह बहुत दुःखी था। एक बार वह एक अनुभवी वैद्य के पास गया, वैद्य ने उसका कोढ़ देखकर एक प्रयोग (नुस्खा)
0 201_n