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सा सा सम्पद्यते बुद्धिः, सा मतिः सा च भावना।
सहायास्तादृशाः सन्ति, यादृशी भवितव्यता।। जैसी कर्म की होनहार घटना होनी होती है, स्त्री-पुरुषों की बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है, उनकी मति और भावना वैसी ही बन जाती है और सहायक भी उसी भवितव्यता के अनुसार मिलते चले जाते हैं। कर्म किसी को नहीं छोड़ते। अंजना ने पूर्वभव में केवल 22 पल के लिये जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति को छिपा दिया था, जिससे उसे 22 वर्ष तक पति का वियोग सहन करना पड़ा।
गोवर्द्धन पर्वत को उठाने वाले महान तेजस्वी, नारायण पद के धारक, महान बली कृष्ण का जन्म बंदीघर में हुआ, जहाँ पर उनका रंचमात्र भी हर्ष न मनाया जा सका, बल्कि गुप्त रूप से उन्हें वहाँ से स्थानान्तरित किया गया। उनका लालन-पालन राजपुत्र की तरह न हुआ। नन्द ग्वाले के घर ग्वाल पुत्र की तरह वे गुप्त रूप से पाले-पोषे गये तथा अपने मरण के कुछ क्षणों पहले उन्होंने अपने नेत्रों से द्वारिका का दाह देखा। उन्होंने अपने बड़े भाई बलभद्र के साथ द्वारिका को अग्नि से बचाने का महान यत्न किया, किन्तु असफल रहे। यहाँ तक असफल रहे कि उस अग्नि से अपने माता-पिता का उद्धार भी न कर सके। महाभारत के महायुद्ध में अपने महान पराक्रम तथा रणनीति कुशलता से पांडवों को विजय दिलाने वाले, कोटिशिला को उठाने वाले नारायण अपने माता-पिता को उस अग्निकाण्ड से न बचा सके।
बहुत थके-मांदे, महान दुःखी जब दोनों भाई अपने प्राण बचा कर वन में पहुँचे, तो दुर्दैव ने वहाँ भी पीछा न छोड़ा, अपना अंतिम बार कर ही दिया। कृष्ण को बहुत प्यास लगी। उनके लिये कमल के पत्ते में जल भर कर बलभद्र कृष्ण के पास भी न पहुँचने पाये कि उनके ही सौतेले भाई जरतकुमार ने दुपट्टा ओढ़कर प्यासे सोते हुए कृष्ण को हिरण समझकर बाण से घायल कर दिया। उस बाण के घाव की चिकित्सा करने वाला भी वहाँ कोई न था और इस प्रकार बलभद्र की अनुपस्थिति में महान पराक्रमी पुरुष नारायण कृष्ण के प्राणपखेरू उड़ गये। उस समय उन की मृत्यु पर शोक करने वाला भी कोई व्यक्ति न था। इसी को कहते हैं -
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