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महाराज के भाव वीतरागता में आ गये । पुनः राजा श्रेणिक समवसरण में पहुँच जाते हैं। वहाँ पूछने पर उन्हें पता चलता है कि इस समय मुनिराज के भाव स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति के हो गये हैं ।
आचार्य समझा रहे हैं कि इन कर्मों के आने के दरवाजों को बंद करो, तभी संसार का बंधन छूटेगा । यदि आस्रव को नहीं रोका, तो संसार परिभ्रमण से छूट नहीं पाओगे। पंडित टोडरमलजी ने लिखा है कि विश्वास पैदा करने के लिये वैद्य रोगी की नाड़ी देखकर कहता है कि तुझे पेट में दर्द होता है, नींद अच्छी नहीं आती, रात को बुखार हो जाता है? वह पूछता जाता है और मरीज हाँ-हाँ करता जाता है। वास्वत में तकलीफ तो रोगी को है, उसे बतानी चाहिये, किन्तु वैद्य विश्वास पैदा करने के लिये ऐसा करता है। रोगी सोचता है कि वैद्य ने जब बिना बताये, मात्र नाड़ी देखकर मेरी तकलीफ पहचान ली है, तब इसका इलाज भी सही होगा। फिर वह वैद्य करुणाभाव से कहता है कि तुम्हें यह तकलीफ इसलिये हुई कि तुमने अनाप-शनाप खाना खाया है, माँस, मंदिरा का सेवन किया है, दिन-रात भखा है, खाने-पीने का ध्यान नहीं रखा है, बदपरहेजी की है। तब वह सोचता है कि यह वैद्य कितना जानकार है। इसने तो बिना बताये ही सबकुछ जान लिया। इस प्रकार वैद्य के प्रति विश्वास हो जाने से मरीज उसके बताये परहेज पालता है, दवा लेता है और भी जो कुछ वैद्य आदेश देता है, उसका पालन करता है।
इसी प्रकार यहाँ संसारी जीव को आचार्य बता रहे हैं कि ये मिथ्यात्वादि आस्रव के कारण हैं, दुःख के हेतु हैं, अतः इनसे बचना चाहिये । इनको छोड़े बिना संसार के दुःखों का अंत नहीं हो सकता ।
एक दिन एक मरीज एक वैद्य के पास आया और रो-रोकर कहने लगा कि मेरे पेट में भयंकर पीड़ा है । वैद्य जी ने उससे पूछा कि गुड़ खाया था? उसने कहा कि नहीं। वैद्य जी ने फिर पूछा- नहीं खाया? उसने कहा हाँ साहब! नहीं खाया। उन्होंने फिर पूछा नहीं खाया? उसने फिर बताया कि नहीं खाया। तो नाराज होते हुये वैद्य जी बोले कि मेरे सामने से हट जा । वैद्य जी ने उसे बहुत डॉटा और बोले कि मैंने तुझसे पहले कह दिया था कि अब तुम U 178 S
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