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सके, वह अमूर्तिक है, जैसे आकाश । मूर्तिक जड़ पदार्थों को आगम भाषा में पुद्गल कहते हैं।
पुद्गल पुद्+गल इन दो शब्दों से बना है। पुद् का अर्थ है पूर्ण होना या मिलना और गल का अर्थ है गलना या बिछुड़ना । जो पूर्ण भी हो सकता हो और गल भी सकता हो अर्थात् जो मिल भी सकता हो और बिछुड़ भी सकता हो, उसे पुद्गल कहते हैं। क्योंकि सर्व ही दृष्ट पदार्थ मिल-मिलकर बिछुड़ते हैं और बिछुड़कर मिलते हैं, जुड़-जुड़कर टूटते हैं और टूट-टूटकर जुड़ते हैं, इसलिये सभी पदार्थ जो इन्द्रियों से देखने-जानने में आते हैं वे सब पुद्गल हैं। ___ यह पुद्गल नाम का पदार्थ बड़ा विचित्र है। जगत के इस विचित्र तथा विस्तृत नाटक में यही मुख्य पात्र है। सर्वत्र इसका ही फैलाव दिखाई देता है। क्या पृथ्वी में, क्या जल में, क्या वायु में, क्या अग्नि में, क्या पाताल में, क्या आकाश में, क्या कीड़े से लेकर मनुष्य पर्यन्त जीवों के शरीरों में, क्या खाने-पीने के पदार्थों में, क्या महल-मकान में, क्या धन में, क्या वस्त्र में सर्वत्र यही नृत्य कर रहा है। ये जितने भी पुद्गल हैं, वे सब जीव के ही शरीर हैं। जितना भी यह जगत है, वह सब इन पुदगल स्कन्धों का ही खेल है। उत्पन्न हो-होकर विनष्ट होता है, इसलिये यह सब असत् है, मिथ्या है, माया है, प्रपंच है। जीव इस प्रपंच को देखते हैं और इसमें ही लुभा जाते हैं। इसमें फँसकर अपने-पराये का तथा हिताहित का विवेक खो बैठते हैं। इसकी प्राप्ति में हँसते हैं तथा इसकी हानि में रोते हैं। इस प्रकार बराबर हर्ष-विषाद करते हुये व्याकुल बने रहते हैं
और चौरासी लाख योनियों में बराबर जन्मते-मरते हुए दुःखी रहते हैं। इस भूल-भुलैया में फंसकर वे यह भी नहीं जान पाते कि वे वास्तव में चेतन हैं, शरीर जड़ है और बाहर में इन दृष्ट पदार्थों से उनका कोई नाता नहीं है। गुरुओं के इस प्रकार के वचन भी उन्हें भाते नहीं हैं। यदि वह यह जान जाये कि यह सब तमाशा पुद्गल पदार्थ का है, जो जीवों को धोखे में डालने के लिए है, तो वह यहाँ से दृष्टि हटाकर अपने चेतन स्वरूप पर लक्ष्य ले जाये और सदा तृप्त तथा आनन्द निमग्न रहे। यही पुद्गल द्रव्य को जानने का प्रयोजन है। यह जीव चेतन और पुद्गल के भेद को नहीं समझता, इसलिये पुद्गल
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