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यही तो अज्ञानता की मोहदशा हमारे विकास में बाधक है। जो मेरा था नहीं, मेरा है नहीं, मेरा होगा नहीं, फिर उसके पीछे अपने परिणाम क्यों खराब कर रहे हो? यदि अपने को पहचानना है तो परवस्तुओं पर अपनी नीयत मत बिगाड़ो और चिन्तन करो कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना है? ध्यान रखना–सम्यग्दृष्टि वही है, जो अपने परिणामों के प्रति सचेत है। जो भी भव्य प्राणी इस रहस्य को समझ गया, वह एक दिन निश्चित ही इस सांसारिक जीवन में रहकर भी कीचड़ में कमल की तरह अपने को बचा लेगा ।
श्री सुधासागर जी महाराज ने लिखा है कि जो दिख रहा है, चखने में, स्पर्श करने में, सूंघने में आ रहा है, पाँचों इन्द्रियों के विषय आ रहे हैं, वह मैं नहीं हूँ । बस, यही सम्यक् दृष्टि है। मैं सोता हूँ, फिर जागता कौन है ? यही तो भेदविज्ञान है। जो मौलिक ( ओरीजनल ) तुम्हारा है, उसे समझने के लिए ब्रह्ममुहूर्त में अपने अन्तर की गहराई में उतरने का अभ्यास करो, फिर आत्मा का अनुभव इस नर-तन की पवित्रता को सार्थक कर देगा ।
यदि अपने को पहचानना है तो पहले जो वस्तु मेरी थी नहीं, जो मेरी है नहीं, मेरी होगी नहीं, उस पर दृष्टि मत डालो। पर - वस्तुओं को अपना मत मानों, फिर आत्मा का स्वरूप प्रकट हो जाएगा। अपने मन को नियंत्रित करो और रावण की बदनियत को खत्म करो । जन्म लेने के बाद जो संबंध जोड़ लिए, उन अनर्थकारी वस्तुओं को निकालने का पुरुषार्थ करो । जब स्वयं का राग द्वेष, मोह-माया से बंधन कम होगा, फिर मैं कौन हूँ और मेरा वास्तविक ध्येय क्या है, यह रहस्य आत्मा को उद्घाटित कर देगा ।
जब वाल्मीकि को सत्य का ज्ञान हुआ, तब वे डाकू से साधु हो गए। इसी तरह यदि मानव अपने जीवन के रहस्य को समझ लेगा, फिर संसार की इस भटकन से अपने को मुक्त कर लेगा । अज्ञान दशा का अपना पर्दा हटाओ और आत्मबोध का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो । जो वास्तव में मेरा है, उसे पहचानो और जो संसार से एक दिन छोड़ना है, उनसे अपनी मोही दशा कम करते जाओ, जिससे अपनी मूल आत्मा बाहरी पदार्थों के वजन से हल्की हो सके। उसका प्रकाश अपने जीवन के अंधकार को मिटा सके और अपना चिन्तन
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