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वस्तु को इंद्रियों व मन के द्वारा ग्रहण करता है, उसी में राग या द्वेष कर लेता है। निराकुलता, चिन्ता रहितता और शांतता को चाहता हुआ भी आकुलता चिंता और अशांति के उत्पन्न करने वाले भावों में पड़ जाता है, इसी से अधिक अशांत हो जाता है। इसके ऊपर जगत को नचाने वाले मोह ने ऐसी भुलाने वाली मोहनी धूल डाल दी है, जिससे यह स्वयं से बेखबर हो रहा है।
मोह महाविष पी रहा, जो है शत्रु समान।
इसको चेतन त्याग दे, तब होगा कल्याण।। मोहरूप तेज शराब को पीकर जीव अपने शान्त स्वभाव को भूल रहा है। मोह इतना बड़ा शत्रु है कि विष तो एक भव में ही प्राण हरता है, लेकिन मोहरूपी विष भव-भव में दुःख देता है। मोहनीय कर्म ऐसा ही होता है जैसा फौज का कमाण्डर । जैसे ही फौज का कमाण्डर मारा जाय तो फौज ठहर नहीं सकती, उसी प्रकार अगर मोहकर्म को जीत लिया जाए तो शेष कर्म ठहर नहीं सकते। इसलिये, भाई! पहले तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करके मोह को खत्म करो। मोह का अर्थ संसार है, संसार का अर्थ विकारी पर्याय है। जितने भी संसारी ठाट-बाट हैं, मोह के कारण दिखाई देते हैं। मोह ही जीव का प्रबल शत्रु है।
मोहनीय कर्म ने आदिनाथ भगवान् को 83 लाख पूर्व तक घर में रोके रखा। जब नीलांजना के निधन को देखकर मोह दूर हुआ, तब वैराग्य प्रगट हो गया। नृत्य करते-करते नीलांजना का मृत्युक्षण आ गया और आदिनाथ भगवान् को नीलांजना के नृत्य ने संसार का स्वरूप दर्शा दिया। नीलांजना-जैसी दिव्य काया भी एक क्षण में छाया में विलीन हो गई। धिक्कार है इस क्षणभंगुर जीवन को, धिक्कार है बर्फ के समान पिघलते यौवन को, धिक्कार है इन्द्रधनुष के समान मिटते सौंदर्य को । मोह दूर होते ही उन्होंने 83 लाख पूर्व तक भोगे दिव्य भोगों को एक क्षण में त्याग दिया। संसार की जड़ 'मोह' है। मोह से सुकौशल मुनि की माँ आर्तध्यान से मरकर व्याघ्री बनी और अपने ही पुत्र सुकौशल मुनि को खाया।
किवदन्ती है-सूरदास नाम के कवि सात भाई थे। एक समय की बात है कि सूरदास के छह भाई युद्ध के लिये चल दिये। सूरदास का अपने भाईयों से
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