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जी ने कहा है कि "निज स्वरूप समझे बिना, पाया दुःख अनन्त ।” जीव अपनी भूल से ही दुःखी है। भूल इतनी कि स्वयं अपने को ही भूल गया और पर को अपना माना। यह कोई छोटी-सी भूल नहीं है, परन्तु सबसे बड़ी भूल है। अपनी ऐसी महान भूल के कारण बेभान होकर जीव चार गतियों में घूम रहा है। किन्तु ऐसा नहीं कि किसी दूसरे ने उसको दुःखी किया या कर्मों ने उसको रुलाया। सीधी-सादी यह बात है कि जीव अज्ञान के कारण स्वयं निज-स्वरूप को भूल कर अपनी ही भूल से रुला व दुःखी हुआ। जब भेदविज्ञान को प्राप्त करके वह अपनी भूल मेटे, तब उसका दुःख मिटे । अन्य किसी दूसरे उपाय से दुःख मिट नहीं सकता।
शरीर से भिन्न आत्मा को जानने पर ही मोह दूर होता है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। यह मोह ही संसार का कारण है। इसलिये ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे पाप-का-बाप यह मोह आत्मा से निकल जाये । यही दुनियाँ को नाच नचाता है। श्री गणेश प्रसाद वर्णी जी ने लिखा है- मोह दूर हो जाये तो आज संसार से छुट्टी मिल जाये। पर हो तब न। उपाय तो विषय भोगों में सुख-शान्ति खोजने के बना रखे हैं। शान्ति को अपने चेतन-घनस्वरूप आत्मा में खोजो, विषय-भोगों में नहीं। विषय–भोग तो अशान्ति को और भी बढ़ानेवाले
हैं।
एक बार एक जिज्ञासु ने गुरु से जाकर कहा कि प्रभु! शान्ति दे दीजिये। गुरु ने कहा-इतनी छोटी-सी वस्तु देते हुये मैं क्या अच्छा लगूंगा? जाओ, सामने नदी में एक मगरमच्छ रहता है, उससे जाकर कहना, वह देगा तुम्हें शान्ति। वह नदी पर गया, मगर को आवाज लगाई और गुरु का आदेश कह सुनाया। मगर बोला-शान्ति तो अवश्य दूंगा, परन्तु मुझे प्यास लगी है, पहले पानी पिला दो, बाद में दूंगा। वह व्यक्ति सुनकर हँस पड़ा और एकाएक उसके मुँह से निकल पड़ा-"जल में मीन प्यासी, मुझे सुन-सुन आवे हाँसी।” मगर बोला-जाओ, यही उपदेश है शान्ति की खोज का । शान्ति तो आत्मा का स्वभाव है। शान्तिसागर में रहते हुये भी शान्ति की खोज करता फिरता है, बड़े आश्चर्य की बात है। अनादिकाल से यह आत्मा मोह के जाल में उलझा हुआ जिस किसी
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