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जिन्दगी निकल जाती है, लेकिन आश्चर्य है, संसारी प्राणी यह नहीं जान पाता कि यह सपना है, भ्रम है, सत्य नहीं है। और यह जान पाना संभव भी नहीं है कि यह स्वप्न है। क्योंकि स्वप्न की एक विशेषता होती है कि स्वप्न में असत्य भी सत्य मालूम होता है। महावीर स्वामी कहते हैं, सारे ऋषि मुनि कहते हैं कि भाई! यह सपने से ज्यादा कुछ नहीं है। इसे सत्य मत मान लेना। यह मृग-मरीचिका मात्र है। आचार्य डाँट कर भी समझाते हैं कि यह समागम आपके पिताजी का नहीं हुआ, पिताजी के पिताजी का नहीं हुआ, तो आपका कैसे हो सकता है? लेकिन अभी तो स्वप्न चल रहा है। मगर जिस क्षण नींद लगेगी, आँखें बन्द होंगी, तब मालूम पड़ जायेगा कि यह सब सपना था, धोखा था।
एक सम्राट था। बड़ा भारी राज्य था उसके पास । वह पूरी पृथ्वी का चक्रवर्ती था। उसका इकलौता बेटा अचानक बीमार पड़ जाता है। डॉक्टर-वैद्यों ने सम्राट से माफी माँग ली। वे बोले 'महाराज! हम रोगों का उपचार कर सकते हैं, मृत्यु का नहीं। राजकुमार के बचने की कोई उम्मीद नहीं। कब दीपक से ज्योति बिदा ले ले, कुछ भी निश्चित नहीं।' डॉक्टरों ने हाथ जोड़ लिये। सम्राट रात भर पुत्र के सिरहाने बैठा रहा। सुबह का वक्त था, ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी, सम्राट को हल्की-सी झपकी लग गई। झपकी लगते ही सम्राट स्वप्न में खो गया और सामने पड़े मरणासन्न बेटे को भूल गया।
वह स्वप्न में देखता है कि वह स्वर्गलोक का इन्द्र बन गया है, उसकी अप्सराओं जैसी कई रूपसी रानियाँ हैं, होनहार दस बेटे हैं, स्वर्ण के महल हैं, जीवन में आनन्द बरस रहा है। सम्राट सपनों में खोया हुआ है। तभी सामने लेटे हुये पुत्र ने श्वास तोड़ दी। रानी छाती पीट-पीटकर रोने लगी। रानी की रोने की आवाज सुनकर सम्राट की नींद खुल गई, उसका स्वप्न टूट गया। जब आँख खुली तो सामने मृत पुत्र को पाया। रानी रो रही है, पुत्र-वियोग में पागल हुई जा रही है। लेकिन सम्राट की आँखों में आँसू तक नहीं आये, बल्कि होंठों पर मन्द-मन्द मुस्कान दिख रही थी। रानी ने सम्राट को मुस्कराते देखा तो बोली-पागल हो गये क्या? बेटा सामने मरा पड़ा है और आप हँस रहे हैं, आपको आज क्या हो गया है?
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