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मंत्री जी बोले- हम कल इनाम की घोषणा करेंगे।
रात्रि में मंत्री ने उस जौहरी को बुलाकर पूछा कि जौहरी जी ! आप इन रत्नों की परीक्षा करना तो सीखे, किन्तु इस देह से भिन्न चैतन्य रत्न को कभी पहचाना कि नहीं?
जौहरी बोला- नहीं, मुझे चैतन्य रत्न की परीक्षा करना नहीं आता । मंत्री बोला - "अरे जौहरी ! तुम अस्सी वर्ष के हो गये हो, तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है और इस मनुष्यभव में अभी तक तुमने अपने चैतन्य रत्न को पहचानने के लिए कुछ नहीं किया। इन जड़ रत्नों की तो परख की, किन्तु चैतन्य रत्न की परख नहीं की, तो यह अमूल्य मनुष्यभव पूरा होने पर आपकी आत्मा का डेरा कहाँ होगा? ऐसी सीख देकर उस समय जौहरी को विदा कर दिया और दूसरे दिन दरबार में आने को कहा ।
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दूसरे दिन दरबार लगा है, राजा और मंत्री बैठे हैं, जौहरी भी आया राजा ने मंत्री को आज्ञा दी कि अब इन जौहरी जी को इनाम की घोषणा करो । मंत्री ने खड़े होकर कहा कि, महाराज! इन जौहरी जी को मैं सात जूते मारने के इनाम की घोषणा करता हूँ । मंत्री की बात सुनकर राजा सहित सारी सभा आश्चर्यचकित हो गई। उसी समय जौहरी स्वयं खड़ा हुआ और बोलामहाराज! जो कुछ मंत्री जी कह रहे हैं, वही सच है। अरे! मुझे तो सात नहीं, चौदह जूते मारे जाना चाहिए । जौहरी की बात सुनकर सबको विशेष आश्चर्य हुआ। अंत में जौहरी ने स्पष्टीकरण किया कि हे राजन् ! मंत्री जी के कथनानुसार मैं जूतों के ही योग्य हूँ, क्योंकि मैंने अपना जीवन आत्मज्ञान के बिना यों ही गँवा दिया। मैंने इन जड़ रत्नों को परखने में अपना अब तक का सारा जीवन बिता दिया, किन्तु अपने चैतन्य रत्न की कभी परख नहीं की । यह भव पूरा होने पर मेरा क्या होगा? इसका मैंने कभी विचार ही नहीं किया। मंत्री जी ने मेरे लिये सात जूतों के इनाम की घोषणा करके मुझे आत्महित कि लिए जाग्रत किया है, इसलिये वे मेरे गुरु के समान हैं। हम लोगों ने भी शरीर आदि की चिन्ता तो की, पर मेरी आत्मा का कल्याण कैसे हो, इसका विचार कभी नहीं किया ।
जिसे अपने आत्मकल्याण की लगन हो, उसे इन सात तत्त्वों का अभ्यास U 113 S