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के द्वारा तत्त्व की खोज करनी है और तब तक खोजते चले जाना है जब तक कि उस निज-तत्त्व की प्राप्ति न हो जाये।
सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन का प्रथम सोपान है। आचार्य मनुष्यपर्याय की दुर्लभता बताते हुये लिखते हैं
आयुषः क्षण एकोपिऽनलभ्यः स्वर्गा कोटिभिः ।
च चेन्निरर्थको निति: को नु हानिस्ततोऽधिकाः ।। आयु का एक क्षण भी करोड़ों स्वर्णमुद्राओं से खरीदकर रोका जाय तो नहीं रुक सकता। अर्थात् आयुकर्म समाप्त हो जाने पर एक पल का समय नहीं मिल सकता। ऐसे अनमोल समय को हम व्यर्थ खोते जा रहे हैं, इससे बढ़कर हम लोगों की कोई दूसरी हानि नहीं हो सकती। अतः सम्यग्दर्शन के इन सोपानों पर क्रमशः आगे बढ़ते हुये सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो।
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