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________________ लघुविद्यानुवाद ६७६ अर्थ :-साधक के हृदय मे एक ही कार अगर विद्यमान है, तो अन्य यन्त्र मन्त्र जिनका कि अल्पफल है और दू साध्य है, ऐसे मन्त्रो अथवा यन्त्रो का क्या प्रयोजन है। अन्यत्र प्रागम मे जिनका वर्णन है ।।१०॥ चौरारि-मारि-ग्रह-रोग, लता, भूतादि दोषा नल बन्ध नोत्थाः । भियः प्रभावात् तव दूर मेव, नश्यन्ति पारीन्द्ररवारि वेभा ॥११॥ मर्थ .- जसे वनराज सिह की गर्जना से हाथी दूर भाग जाते है, वैसे ह्रो कार तुम्हारे प्रभाव से चोर, गागु मारी, ग्रह, रोग, ह्रता रोग तथा भूत, व्यतर, राक्षस, प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, पिशाचादि दोष और अग्नि तथा बन्धन से उत्पन्न होने वाले भय दूर हो जाते है ।।११।। प्राप्नोत्यपुत्रः सुतमर्थहीनः श्री दायते पतिरपीतवीह । दूखी सुखी चाऽथ भवेन्न कि कि, त (त्त) पचिन्ता मरिचितनेन ॥१२॥ अर्थ -चिन्तामणि समान तुम्हारे रूप का चितन करने से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता? जिसको पुत्र नहीं है उसको पुत्र की प्राप्ति होती है, जिसके पास लक्ष्मी नही है उसको लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। सेवक भी स्वामी बनता है, दुखी भी अत्यन्त सुखी होता है ॥१२॥ विशेष :-इस ही कार को साधक सावन ध्यान से निरालबन ध्यान करे फिर निरालवन ध्यान से से पराश्रित ध्यान करे, उसके बाद उल्टा पराश्रित ध्यान मे से निरालवन और निरालबन मे से सालवन ध्यान करे, इस प्रकार ध्यान करने से अनेक सिद्धिया प्राप्त हो जाती है । सालबन वाह्य पर आदि आलबन सहित ध्यान ।। निरालवन-बाह्य प्रालबन बिना केवल मन के द्वारा ही कार की आवत्ति का ध्यान करना । पराश्रित हो कार से वाच्य ऐसे परमात्मा के गुणादि का ध्यान करना। पुष्पादि जापामतहोम पूजा, क्रिया धिकारः सकलोऽस्तुदूरे । य केवल ध्यायति बीज मेव, सौभाग्य लक्ष्मी वृर्णत स्वयंतम् ।।१३।। -पुष्प वगैरह के जाप से क्या, घी के होम से भी क्या, पूजा वगैरह समस्त क्रियानो का आधकार दूर रहा, किन्तु केवल तुम्हारे वीज रूप ध्यान से समस्त सौभाग्य रूपी लक्ष्मी स्वय वरण करती है ।।१३।। अर्थ
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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