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________________ ६८० लघुविद्यानुवाद महिमा : त्वतोऽपि लोकः सु कृतार्थ काम, मोक्षान पुमर्थाश्चतुरो लभन्ते । यास्यन्ति याता अथ यान्तिये ते, श्रेय परं त्वमहिमा लवः सः ॥१३॥ अर्थ -तुम्हारे प्रभाव से लोक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थो की प्राप्ति करते है। जो मोक्ष का स्थान है उसको प्राप्त कर रहे है, कर गये है और आगे भी करेगे । वे सब तुम्हारी महिमा का अश मात्र है। क्योकि एक ही कार माया बीज के अन्दर चौवीस तीर्थङ्कर, चौबीस यक्ष, चौबीस यक्षिणी समाविष्ट है। ह्री कार को सिद्ध परमेष्ठि वाचक भी कहा है, और इस ह्री कार मे धरणेद्र पद्मावती पाश्वनाथ प्रभू का भी वास है । मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक को ही कार का कैसा स्थान चाहिये सो बताते है । वृक्ष, पर्वत, शिलाओ से रहित क्षीर समुद्र के समान जो सम्पूर्ण बाधाओ से रहित आनन्ददायक, शान्त अद्वितीय क्षीर से परिपूर्ण जैसे क्षीर का महासागर हो ऐसी इस पृथ्वी का चितवन करे। फिर ऐसी पृथ्वी के बीच अष्ट दल कमल, कमल दल पर ही कार उसके बीच करिणका मे स्वय मै उज्ज्वल कान्तिमान पद्मासन लगाकर बैठा हू ऐसा चितवन करे। फिर स्वय को चतुर्मुख तीर्थङ्कर के समान समवसरण सहित ध्यान करे, चारो गतियो का विच्छेद करने वाला सव कर्मो से रहित पद्मासन से बैठा हुआ श्वेत स्फटिक के समान वर्णमाला ही कार के बीच अपनी आत्मा को बैठा हुआ देखे फिर ह्री कार के प्रत्येक अग से अमृत झर रहा है और उस अमृत से मेरी प्रात्मा का सिचन हो रहा है, ऐसा चितवन करे, ऐसा ध्यान करने से साधक तद भव मोक्ष सुख पा लेता है अथवा तीन चार भव मे नियम से मोक्ष पा लेता है। अर्थ विधामयः प्राक प्रणवं नमाऽन्ते, मध्येक (च) बीजननु जरनपोति । तस्यैक वर्णा वितन्योतया वंध्या, कामार्जुनी कामित केव विद्या ।।१४।। -जो साधक पहले प्रणव "ॐ" और अन्त मे ‘नम" मध्य मे अनुपम बीज "ही" कार का बार-बार जप करता है, उसके सर्व मनवाछित कार्य एक वर्नवाही अवश्य और कामधेनु के समान ही कार विद्या विस्तारती है, इसको एकाक्षरी विद्या कहते है । ॐ ही नम । १५।
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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