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लघुविद्यानुवाद
मन्त्र, यन्त्र रचना व फल इसमे पहले षट्कोण रचना करे, फिर बीच मे चक्रेश्वरी देवी की मूर्ति बनावे। षट्कोण को कणिकाओ मे नीचे से क्रमश आ, हु क्ष , ह्री, च, के लिखे, पट्कोण चक्र के ऊपर थू , झौ, दू , पू , दक्षिण मे गू क्ष्मी श्री लिखे, उत्तर मे ह र ह कुरु कुरु लिखे, नीचे क्ली क्ली ही चक्र इति यन्त्रोद्धार । मूल मन्त्र -ॐ श्रू झौद्र पू गू क्ष्मी श्री कुरु कुरु हर हर ह क्ली क्ली ह्री चक्रे स्वाहा ।
इस मन्त्र का साढ बारह हजार यन्त्र तावे के पत्रे पर बनाकर सामने रख कर, विधि सहित जाप करे, तो मोहन कर्म, विणेप होता है, श्री कीति बुद्धि का विस्तार होता है, क्षोभण, द्रावरण, वशीकरण भी होता है। मोहन, शोषण, विजय, उच्चाटनार्थ
चतुर्थ काव्य
ॐ क्षु द्रा ह्री सु बीजै प्रवर गुण धरै मोहिनी शोषणी त्व। शैले-शले नटन्ती विजय जयकरी रौद्र मूर्ते त्रि नेत्रे ।। वज्र क्रोधे सु भोमे 'रहसि' करतले भ्रामयन्ति सु चक्र। रु रु रौ ह कराले भगवति वर दे त्राहि मा देवी चक्रे ॥४॥ टीका . हे चक्रे देवि त्व मा त्राहि रक्ष रक्ष कथ भूते चक्रे ॐ क्षु द्रा द्री ह्री सु बीजै मोहनी त्व
मसि 'प्रवर' गुण धरै बीज त्व शोषिणी कर्म शोषण्यसि शैले २ पर्वते 'नटन्ती' श्री श्ली पदेन श्ले श्लै पदेन विजय जय करो हे रौद्र मर्ते हे त्रिनेत्रे हे वज्र क्रोधे हे सु भी मे भ्रा भ्री भ्र भ्रौ भ्र सु भी मे 'त्व' कर तले हस्त तले चक्र, भ्रामयन्ति 'रटसि' पठसि रु रु रोह कराले हे चक्र भगवति वर दासि इति हे वरदे त्व मा रक्षेत्यर्थ ।
अथ यन्त्रोद्धार प्रथमा नु क्रमे 'चक्रेश्वरी' मति रभ्यन्तरे लेख्या षट्कोण केपु पूर्व व द्विजाति व्यवस्थाप्य तदुपरि ॐ शू द्रा ह्रो माहय मोहय मोहनि एनी श्ली श्ले श्लै विजये जय जय दक्षिण उत्तरे च भ्रा भ्रो 5 भ्रो न चक्र भ्रानय भ्रामय अध श्च रु रु रौ ह. कराले वरदे रक्ष रक्ष इति ।