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भैरब पद्मावती कल्प
शशिरेखा खर कर्णी कोकिळ नयनाप मार्ग कनकानाम् । चूर्णे सविंशतिदिनानि परिमयेत्सूतम् ॥ ३५ ॥
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भा० टी० - फिर उस शोधे हुये पारद रसको शशिरेखा (गिलोय) स्वकर्णी, कोकिलाक्षवीज, चिरचिटेके बीज और काले धतूरे के बीजों के चूर्णके साथ २१ दिन तक खरल करे । निशायां कांजिकं धूपं दमा योनौ प्रवेशयेत् ।
बालां मध्यां गतप्रायां योषां विज्ञाय तत्क्रमात् ।। ३६ ।। भा० टी० - उसको रात्रिमें कांजी की धूप देकर योनिसें डाल दे । बाला के लिये बारह गद्याण प्रमाण, मध्यमाके लिये सोलह गद्यान प्रमाण और प्रौढ़ा (ये २४ गद्याण प्रमाण वाली लेवे नीरसतां विभ्राणां योषां रतिसंगरे महोन्मताम् । द्रावयति तादृशीमप्येष जलूका प्रयोगस्तु ॥ ३७ ॥
भा० टी० - इस जलुकाका प्रयोग रति कालमें सदा नीरस रहने वाली और महान् उन्मत्त खोको भी द्रावित कर देता है । शाकनीहरण तिलक
सोमाशाश्रितसूल कपिकच्छोर्गेजलेन सम्पिष्टम् ।
निजतिलकप्रतिबिंब सम्पश्यति शाकिनी शीर्षे ॥ ३८ ॥
भा० टी० - उत्तर दिशा में उत्पन्न हुई कौच की जढ़को गोमूत्र में पीसकर उसका मस्तकपर तिलक करनेसे शाकिनी उसमें अपना प्रतिबिंब देखती है |
दिव्य स्तंभक चूर्ण
आदित्याक्षत दिव्य स्तम्भविधौ मरिचपिपलीकामम् । खर्पर दिव्यस्तम्भे पुटशुन्ठीचूर्ण व भक्षयेद्धोमान् ॥ ३९ ॥ भा० टी० - बुद्धिमान् पुरुष दिव्य स्तम्भनके विधानमें आदित्य (आक) और अक्षत अथवा मिरघ, पीपल, काम (ऊषण) का