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सद्धर्मसंरक्षक ३१- श्रीप्रथमानुयोग में कहा है कि अनेक श्रावकश्राविकाओं ने श्रीजिनमंदिर बनवाए और पूजा की।
अत: चक्रवर्तियों, राजों-महाराजों, रानी-महारानियों, अविरति सम्यग्दृष्टि इन्द्र-इन्द्रानियों, देवी-देवताओं, देशविरति श्रावकश्राविकाओं, पांच महाव्रतधारी साधु-साध्वीओं, जंघाचारण आदि लब्धिधारी मुनियों, गणधरों आदि सबके जैन आगमों में जिनमंदिर, जिनप्रतिमाएं बनवाने और उनकी पूजा-उपासना करने के बहुत प्रमाण विद्यमान हैं।
इन सब प्रमाणों के लिये सूत्रपाठो को दिखलाकर आपने सौदागरमल का समाधान किया।
(आ) जिनप्रतिमा के पूजन से हिंसा भी संभव नहीं है, परन्तु इसके द्वारा श्रीतीर्थंकर प्रभु की भक्ति से कर्मक्षय होने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वातिजी महाराज ने हिंसा का स्वरूप बतलाया है कि "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोणं हिंसा।" अर्थात् - प्रमादवश जीवों के प्राणों का नाश करना हिंसा १. (१) न च सत्यपि व्यपरोपणे अर्हदुक्तेन यत्नेन परिहरन्त्याः प्रमादाभावे हिंसा भवति । प्रमादो हि हिंसा नाम । तथा च पठन्ति -
"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।" [तत्त्वार्थ ७८] इति
अन्यथा पिण्डोपधि-शय्यासु स्थान-शयन-गमनागमना-ऽऽकुञ्चन-प्रसारणाऽऽमर्शनादिषु च शरीरं क्षेत्रं लोकं च परिभुजानो
"जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च ।
जन्तुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥" [तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ५४१] हिंसकत्वेऽपि अर्हदुक्तयत्नयोगे न बन्धः । तद्विरहे एव यत्नः । तथा च पठन्ति -
"मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स" || ३।१७ ।।
[कुन्दकुन्दाचार्यविरचिते प्रवचनसारे]
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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