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जिनप्रतिमा मानने और पूजने की चर्चा
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है। श्रीजिनप्रतिमा के पूजन में विषय, मद, विकथा, प्रमाद, कषाय आदि (प्रमत्त के इन पाँचों भेदों) का सर्वथा अभाव होता है । इसलिये जिनपूजा में हिंसा मानना अज्ञान है मात्र इतना ही नहीं, परन्तु जो जिनप्रतिमापूजन में हिंसा मानते हैं वे जैन हिंसाहिंसा के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ।
“जयं तु चरमाणस्स दयाविक्खिस्स भिक्खुणो ।
नवे न बज्झए कम्मे पोराणे य विधुयए ।
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अजयं चरमाणस्स पाणभूयाणि हिंसओ । बज्झए पावर कम्मे से होति कडुगे फले ॥"
"अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः पर- प्राण-व्यपरोपो बहिरङ्गः । तत्र पर-प्राणव्यपरोप- सद्भावे तदभावे वा तदविनाभावि प्रयताचारेण प्रसिध्यदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चित - हिंसा भाव-प्रसिद्धेः । तथा तद्विनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिध्यदशुद्धोपयोगासद्भाव-परस्य पर-प्राण-व्यपरोप- सद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्ध्या, सुनिश्चितहिंसाऽभाव-प्रसिद्धेश्चाऽन्तरङ्ग एव छेदो बलीयान्, न पुनर्बहिरङ्गः । एवमप्यन्तरङ्गच्छेदायतनमात्रत्वाद् बहिरङ्गाच्छेदोऽभ्युपगम्यतैव ॥ [प्रवचनसारस्य अमृतचन्द्रसूरिकृतायां वृत्तौ पृ० २९१ २९२]
अर्थात्- जीव के प्राणों का नाश होने पर भी श्री अरिहंत प्रभु के कहे अनुसार यत्नपूर्वक (जयणा से) हलन चलन आदि करने से प्रमाद के अभाव के कारण हिंसा नहीं होती।
प्रमाद ही हिंसा है। इसीलिये तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के आठवें सूत्र में स्पष्ट कहा है कि "प्रमाद के योग से जीव के प्राणों का नाश हिंसा है।"
यदि ऐसा न मानें तो मुनि-आर्यका (साधु-साध्वी, आहार, उपधि, शय्या आदि) में स्थान, सोने, आने-जाने उठने बैठने, शरीर आदि को सिकोड़ने फैलाने, आमर्शना आदि में शरीर, क्षेत्र, लोक का परिभोग करने से सर्वथा हिंसा ही हिंसा होनी चाहिए ?
तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर राजवार्तिकटीका पृष्ठ ५४१ में कहा है कि -
"जल में जीव-जन्तु हैं, स्थल में जीव-जन्तु हैं, और आकाश भी जीव-जन्तुओं से भरपूर है। जीव-जन्तुओं से भरे हुए चौदह राजलोक (सम्पूर्ण विश्व में भिक्षु (साधु) अहिंसक कैसे "
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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