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सद्धर्मसंरक्षक "गुरुदेव ! आप यदि मुझे वेष में रखने का आग्रह करेंगे और यदि कदाचित् इस वेषमें मुझसे कोई अकार्य हो जावेगा तो धर्म और आपकी निन्दा होगी। मैं तो निन्दनीय हो गया। मेरे परिणाम पतित हो चुके हैं, इसलिये आप मुझे रोकने के लिये आग्रह न करें । यदि मेरे परिणाम फिर सुधर जायेंगे तो मैं फिर आकर आपका चेला बन जाऊंगा।" ऐसा कह कर प्रेमचन्द अपने पोथी-पन्ने और साधु का वेष आपको देकर वन्दना-नमस्कार करके गुजरांवाला के उपाश्रय में से रात की दो घडी बाकी रहते हुए आपके पास से चला गया। उसने लाहौर जाकर एक सिख सरदार के वहां नौकरी कर ली। फिर वह एक वर्ष के बाद छुट्टी लेकर आपके पास दर्शनों को आया । पंद्रह-बीस दिन आप के पास रहकर वह वापिस चला गया । ये सब घटनाए चर्चा (सद्बोध का कार्यक्रम) चालू होने से पहले ही हो चुकी थीं। अब आपने अकेले ही वि० सं० १९०० (ई० स० १८४३) का चौमासा पसरूर में किया । यहा पर लाला जिवन्देशाह भावडे (ओसवाल) दूगड का भानजा मूलचन्द जो स्यालकोट का रहनेवाला था, उसकी भावना आपके पास दीक्षा लेने की हुई । यहाँ पर भी दो-चार परिवारों ने आपकी श्रद्धा को धारण किया । इनका परिवार किला-सोभासिंह में था, जो पसरूर से दक्षिण की तरफ चार-पांच मील की दूरी पर था । वि० सं० १९०१ (ई० स० १८४४) का चौमासा आपने अकेले ही रामनगर में किया । चौमासे उठे आप गुजरांवाला में पधारे । यहा मूलचन्द ने १६ वर्ष की आयु में वि० सं० १९०२ (ई० स० १८४५) में आपके पास दीक्षा ग्रहण की । मूलचन्द के माता-पिता तथा इन का परिवार स्यालकोट में
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5
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