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मुखपत्ती-चर्चा
४९ ३- उपाश्रयवसती आदि की पडिलेहणा करते समय नाक और मुख को बाँधने (आच्छादित करने के लिये [जिससे कि सचित रज का मुख और नाक में प्रवेश न हो सके] मुखवस्त्रिका को ग्रहण करना चाहिये।
इस गाथा में मुखवस्त्रिका के तीन प्रयोजन बतलाये हैं। १मुख ढाके बिना बोलते समय कोई उडनेवाला छोटा जीव-जन्तु (मक्खी-मच्छर आदि) मुख में गिरा जाना संभव है । इसलिये उसकी रक्षा के लिये बोलते समय मुखवस्त्रिका को मुख के आगे रखना । २- शरीर पर उडकर पड़ी हुई सूक्ष्म धूली को मुखवस्त्रिका द्वारा शरीर पर से दूर करना । ३- उपाश्रय आदि वसती के प्रमार्जन के समय मुख और नासिका को मुखवस्त्रिका को तिकोण करके उससे ढंक लेना और उसके दोनों कोणों (सिरों) को गले के पीछे बाँध लेना जिससे मुख और नासिका में सचित्त धूली आदि का प्रवेश न हो । इसके लिये साधु-साध्वी को मुखवस्त्रिका रखनी चाहिये । संक्षेप में कहें तो- १- बोलते समय संपातिम जीवों की रक्षा के लिये, २- शरीर आदि की प्रमार्जना के समय, तथा ३- उपाश्रय आदि की प्रमार्जना के समय पृथ्वीकाय आदि सचित स्थावर जीवों की रक्षा के लिये साधु-साध्वी को मुखवस्त्रिका का रखना अनिवार्य है।
४-चौथा कारण यह है कि शास्त्रादि वाचते तथा व्याख्यानादि करते समय सूक्ष्म थूक, श्लेष्म आदि का मुख से उडना संभव है
और उसके शास्त्रादि पर गिर जाने से आशातना होती है। इनसे बचने के लिये भी मुखवस्त्रिका से मुख ढाँकना आवश्यक है। इस बात को मैं पहले भी आचारांग श्रुतस्कन्ध २ अध्याय २ उद्देशा ३ के पाठ से बतला चुका हूँ
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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