________________
सद्धर्मसंरक्षक ३- मुँह पर चौबीस घंटे मुँहपत्ती बाँधने का और मुँहपत्ति में डोरा डाल कर कानों में लटकाये रखने का उल्लेख आगमों में कहीं भी न होने से हमने इसका त्याग करना उचित समझा है। आपको तथा आपके स्थानकमार्गी एवं तेरापंथी सम्प्रदाय के साधुओं को भी ऐसा ही करना उचित है।
ऋषि अमरसिंहजी - यदि मुख द्वारा निकले हुए बाष्प तथा शब्द से हिंसा संभव नहीं, तो मुखवस्त्रिका का प्रयोजन कुछ नहीं रहता।
ऋषि बूटेरायजी - इसी ओघनियुक्ति में मुँहपत्ति का प्रयोजन जिस गाथा में बतलाया है, उसे भी जान लो -
"संपातिमरयरेणुपमज्जणट्ठा वयंति मुहपत्तिं । नासं मुहं च बंधइ तीए वसहीं पमज्जंतो" ॥ ७१२ ॥
व्याख्या - संपातिमसत्त्वरक्षणार्थं जल्पदभिमुखे दीयते, तथा रजः सचित्तपृथ्वीकायस्तत्प्रमार्जनार्थं मुखवस्त्रिका गृह्यते; तथा रेणुप्रमार्जनार्थं ये मुखवस्त्रिकाग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिकां मुखं च बध्नाति तथा मुखवस्त्रिकया वसति प्रमार्जयन् येन न मुखादौ रजः प्रविश्यतीति ।।
इस गाथा का भावार्थ यह है कि १- बोलते समय संपातिम (उडते हुए) जीवों का मुख में प्रवेश न हो, इस लिये मुखवस्त्रिका को मुख के आगे रखकर बोलना । २- पृथ्वीकाय के प्रमार्जन के लिये मुखवस्त्रिका का उपयोग करना । अर्थात् जो सूक्ष्म धूली उडकर शरीर पर पड़ी हुई हो, उस के प्रमार्जन-प्रतिलेखन के लिये मुखवस्त्रिका को ग्रहण करना प्राचीन ऋषिमुनियों ने कहा है।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5
[48]